समर्थक / Followers

रविवार, 27 दिसंबर 2009

घर-आफिस की चिंता अब रोबोट के जिम्मे

अभी तक हम रोबोट के किस्से सुना करते था, पर अब भारत में भी रोबोट अपने जलवे दिखने को तैयार है. यदि आप अपनी जिंदगी में बेहद व्यस्त आदमी हैं तोअब घर और ऑफिस की चिंता करने की जरूरत नहीं। सुरक्षा का जिम्मा संभालने के लिए रोबोट है न। स्पर्श और ध्वनि सेंसर युक्त रोबोट 'स्कार्पियो' दुश्मन की आहट पाते ही हमला करता है। यही नहीं, आम इंसान की तरह दौड़-दौड़कर काम निपटाने वाला हिमोनाइड भी तैयार है।

सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि यह रोबोट किसी वैज्ञानिक ने नहीं बल्कि डीबीएस कालेज, कानपुर की इलेक्ट्रानिक्स की बीएससी की छात्रा श्रुति अवस्थी और निधि अवस्थी ने तैयार किये हैं। वस्तुत: 'स्कार्पियो' माइक्रोप्रोसेसर वाला कंप्यूटर आधारित रोबोट है। तीन बैटरी वाले स्कार्पियो में टच व साउंड सेंसर लगे हैं। 25 सेंटीमीटर की रेंज वाले तैयार रोबोट की क्षमता कितनी भी बढ़ायी जा सकती है। यह रोबोट संपर्क में आते ही दो कदम पीछे हटकर हमला करता है। इसी प्रकार दो बैटरियों वाले दूसरे रोबोट हिमोनाइड में टच, साउंड सेंसर के साथ ही इंफ्रारेड सेंसर लगे हैं, जो इशारे पर काम करता है। यह विकलांगों के लिए सबसे ज्यादा मददगार है। दवा, पानी, सामान लाने जैसे काम इससे कराये जा सकते हैं।

रविवार, 20 दिसंबर 2009

दक्षिण कोरिया में एन-सियोल टॉवर से दृश्यावलोकन

कोरिया प्रवास के दौरान 21 नवम्बर को हम लोग सियोल स्थित एन-सियोल टॉवर भ्रमण पर गए. यह कोरिया प्रवास का हमारा अंतिम दिन था. केबल-कार से हम लोग इस टॉवर पर पहुंचे. वाकई वहाँ से चारों तरफ का मनोरम दृश्य देखना बेहद आनंददायी था. यह सियोल का सबसे ऊँचा स्थान है, जहाँ से पूरे शहर का दृश्यानंद लिया जा सकता है. 1969 में स्थापित यह टावर कोरिया का प्रथम इलेक्ट्रिक वेव टावर था, जिसका उपयोग टी0 वी0 व रेडियो ब्राडकास्टिंग के लिए किया जाता था. 1980 में इसे जन-उपयोग हेतु खोल दिया गया.

(इस तस्वीर में टावर की छाया देखी जा सकती है)

(टावर की तस्वीर के समक्ष)

(टावर स्थित टेलीस्कोप से सियोल का दृश्यावलोकन) (टावर के अन्दर का दृश्य)
N Seoul Tower, it is the best observatory space of Seoul, where your can appreciate all the panoramic scenery of Seoul with cutting edge media display with various culture. “N Seoul tower” a center of Seoul, a symbol of Seoul, and the highest place where you can see all the most beautiful scenery of Seoul was established as a Korea’s first total electric wave tower to sent TV and radio broadcasts in Seoul metropolitan area in 1969. N Seoul tower became a resting place of Seoul citizens and a sightseeing site for foreigners after it’s opening to the public in 1980.




शनिवार, 19 दिसंबर 2009

दक्षिण कोरिया में जियांगबाक पैलेस - सियोल की यात्रा

कोरिया प्रवास के दौरान 20 नवम्बर को हम लोग सियोल स्थित जियांगबाक पैलेस गए. इतिहास के गलियारों में जाकर किसी देश की सभ्यता-संस्कृति को समझना हो तो वहां के राजमहलों, किलों की सैर कीजिये. आपने प्रशिक्षण-काल में मैं जहाँ भी गया, वहाँ यही किया. राजस्थान और मध्यप्रदेश के अधिकतर जगहों की खाक छान मरी. ऐसे में एक लम्बे समय बाद किसी पैलेस को देखना सुखदायी था. जियांगबाक पैलेस न सिर्फ खूबसूरत है, बल्कि स्थापत्य कला का भी सुंदर दृश्य संजोता है.

It was in 1395, three years after the Joseon Dynasty was founded by Yi Seong-gye, when the construction of the main royal palace was completed and the capital of the newly founded dynasty moved from Gaeseong to Seoul (then known as Hanyang). The palace was named Gyongbokgung, the “Palace Greatly Blessed by Heaven.’’ With Mount Bugaksan to its rear and Mount Namsan in the foreground, the site of Gyeong-bokgung Palace was at the heart of Seoul according to the traditional practice of geomancy.



रविवार, 13 दिसंबर 2009

जहाँ सफल पुत्रों के पिता को मिलता है सम्मान

एकेडमिक रिसर्च सोसाइटी, उत्तर प्रदेश एक ऐसी संस्था है जो सामाजिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में प्रायोगिक, काल्पनिक, सृजनात्मक प्रयासों को बढ़ावा दे रही है। यह सोसाइटी युवाओं पर विशेष फोकस कर रही है. इसके निदेशक श्री राम तिवारी (जो कि सैन्य-अध्ययन पर महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं) और एडवोकेट पवन तिवारी ने इसके कार्यक्रम में जब मुझे बुलाया, तो इसकी गतिविधियों के बारे में पता चला।
यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि तमाम गतिविधियों से परे हर वर्ष एकेडमिक रिसर्च सोसाइटी एक ऐसे पिता को सम्मानित करती है, जिसका पुत्र के विकास में विशेष योगदान हो और उनके पुत्र का राष्ट्रीय / अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेष योगदान हो. सोसाइटी का मानना है कि " जो पिता अपने पुत्र को राष्ट्र चिंतन में संलग्न करता है, वो पिता संसार का सबसे सफल व्यक्ति होता है." वर्ष 2007 में यह सम्मान शहीद मेजर सलमान के पिता श्री मुश्ताक अहमद खान, 2008 में उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन के पूर्व अध्यक्ष और मानस संगम, कानपुर के संयोजक डा० बद्री नारायण तिवारी जी के पिता स्वर्गीय पंडित शेष नारायण तिवारी को प्रदान किया गया. वर्ष 2009 का सम्मान स्वर्गीय शिवनारायण कटियार जी को प्रदान किया गया, जिनके सुपुत्र डा० सर्वज्ञ सिंह कटियार जाने-माने वैज्ञानिक और शिक्षाविद हैं. कानपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डा० कटियार को पद्मश्री और पद्मविभूषण सम्मान प्राप्त हैं. वाकई इस तरह के कार्यक्रम समाज को न सिर्फ प्रेरणा देते हैं, बल्कि नई राह भी दिखाते हैं !!

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

द. कोरिया में डाक सेवाएँ

कोरिया में 19 नवम्बर, 2009 को KEOTI से हम लोग राजधानी सियोल पहुंचे. वाकई यह एक भव्य, खूबसूरत और समृद्ध शहर है. यहाँ स्थित सियोल सेंट्रल पोस्ट ऑफिस को देखा तो दंग रह गया. पोस्ट टॉवर नाम से मशहूर इस पोस्ट ऑफिस में 7 बेसमेंट लेवल और 21 फ्लोर हैं. सभी सुविधाएँ पोस्ट टॉवर के अन्दर मौजूद हैं. 1884 में बना ये पोस्ट ऑफिस वर्तमान रूप में वर्ष 2007 में आया. डाकघरों का मॉडर्न लुक देखने का यह एक उम्दा नमूना था. अपने भारत में प्रोजेक्ट एरो के तहत डाकघरों में आमूल-चूल परिवर्तन और उनकी ब्रांडिंग की जा रही है, पर कोरिया इस मामले में हमसे काफी विकसित है. कोरिया-पोस्ट का ध्यान लाजिस्टिक्स और बड़े पार्सल पर है. इसी के चलते वहाँ ई-कामर्स भी डाकघरों में भली-भांति चल रहा है. बीमा के क्षेत्र में वे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, दुर्भाग्य से भारत में डाक जीवन बीमा अभी भी सरकारी-अर्धसरकारी लोगों तक सीमित है. बचत बैंक में भी उनका प्रदर्शन अच्छा है. युवाओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त इन्टरनेट सेवा देना कोरिया पोस्ट की अपनी विशेषता है. कोरिया में अभी डाक सेवाएँ सरकार के नियंत्रण में हैं और 300 ग्राम तक की डाक पर डाक विभाग का एकाधिकार है. भारत में भी यह एकाधिकार है, पर इस पर कोई इन्फोर्समेंट न होने के कारण कूरियर तेजी से पांव फैला रही हैं. डाक का निस्तारण ऑटोमेशन तकनीक द्वारा किया जा रहा है. यहाँ तक की कोरिया पोस्ट का अपना काल-सेंटर भी है, जहाँ 24 घंटे सेवाएँ उपलब्ध है. शिकायतों के निस्तारण का यह बढ़िया तरीका है. कुछ भी हो बदलते दौर की तकनीकों और आवश्यकताओं को समझने का यह सुनहरा मौका था, ताकि उसे भारतीय परिवेश में भी लागू किया जा सके.

द. कोरिया यात्रा से जुड़ी यादें

भारत सरकार द्वारा प्रायोजित Executive Development Program for India Post Managers के तहत भारतीय डाक सेवा के वर्ष 2001 और 2002 बैच के अधिकारियों को एक सप्ताह के प्रशिक्षण के लिए 15-21 नवम्बर, 2009 तक दक्षिण कोरिया भेजा गया. वहाँ पर Knowledge Economy Officials Training Institute (KEOTI) ने इस कार्यक्रम की मेजबानी की. हम लोग 15 नवम्बर की शाम KEOTI पहुंचे. जीरो से नीचे तापमान ....अगले दिन सुबह नींद खुली तो चारों तरफ बर्फ ही बर्फ थी। एक लम्बे समय बाद बर्फ देखना बड़ा सुकूनदायी लगा। कभी मसूरी में ट्रेनिंग के दौरान बर्फ गिरना देखा था और अब....!! KEOTI के बाहर मित्रों के साथ। पार्श्व में KEOTI भवन दिख रहा है.


KEOTI के डायरेक्टर और प्रोफेसर्स के साथ क्लासेस लगी तो वोट ऑफ़ थैंक्स भी हुआ
कोरिया-पोस्ट के प्रेसिडेंट Namgung Min से भी मुलाकात हुई. उनके साथ एक ग्रुप फोटोग्राफ






























हाजिर हूँ जनाब !!

इधर कई दिनों से ब्लॉग से कटा रहा...कुछ शासकीय व्यस्तताएं और इस बीच तीन सप्ताह की ट्रेनिंग और दक्षिण कोरिया यात्रा. पुन: ब्लॉग की दुनिया में हाजिर हूँ. इस बीच की गतिविधियों को भी ब्लॉग पर रखने की कोशिश करूँगा और कुछ रचनात्मक संवाद भी. आशा है आप सभी का प्यार और सहयोग पूर्ववत मिलता रहेगा. दक्षिण कोरिया की डाक-प्रणाली के बारे में कुछ रोचक तथ्य व चित्र आप मेरे डाकिया डाक लाया ब्लॉग पर भी देख सकते हैं !!

रविवार, 6 दिसंबर 2009

समाज के दमनात्मक संकेतों के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीकः डाॅ0 अम्बेडकर (पुण्य-तिथि पर विशेष)

- बाल्यावस्था में कोई भी नाई आपके बाल काटने को तैयार नहीं था सो आप सहित सभी भाईयों का बाल माता जी ही काटा करती थीं।

- बाल्यावस्था में आप जब पूर्व भुगतान करके अपने अग्रज के साथ बैलगाड़ी में बैठकर गोरेगाँव रेलवे स्टेशन जा रहे थे तो रास्ते में बातचीत द्वारा गाड़ीवान को आपकी अछूत जाति का पता चला तो वह अपवित्र होने के भय से गाड़ी से उतर गया और आपके अग्रज बैलगाड़ी चलाकर स्टेशन तक ले गए तथा गाड़ीवान पीछे-पीछे पैदल चलता रहा।


- हाईस्कूल में आपको द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत नहीं वरन् फारसी पढ़नी पड़ी, क्योंकि अछूत बच्चों को संस्कृत की शिक्षा देना पाप समझा जाता था।- अध्ययन-काल के दौरान जब शिक्षक के कहने पर आप ब्लैकबोर्ड पर लिखने के लिए बढ़े तो आपकी कक्षा के सभी बच्चे दौड़कर ब्लैकबोर्ड के पीछे रखे अपने टिफिन को लेकर बाहर भाग गए कि कहीं उनका भोजन अपवित्र न हो जाय।


- अध्ययन काल के दौरान प्यास लगने पर आपको नल छूने की मनाही थी। प्यास लगने पर आप अध्यापक से कहते और उनके आदेश पर चपरासी नल खोलता और तब कहीं आपको पानी पीने को मिलता।


- बड़ौदा राज्य में सेवा-काल के दौरान चपरासी आपके हाथ में पत्रावलियाँ और फाईल सीधे न देकर फेंक जाता था।


- महाराष्ट्र सरकार द्वारा दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दशा का अध्ययन करने हेतु गठित समिति के सदस्य रूप में दौरे के दौरान एक प्राथमिक पाठशाला के हेडमास्टर ने आपको परिसर में घुसने तक नहीं दिया और एक जगह तो तांगा चालक ने आपको तांगे पर बिठाने से इनकार कर दिया।


आधुनिक भारत के निर्माताओं में डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डाॅ0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डाॅ0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। 14 अप्रैल, 1891 को इन्दौर के निकट महू कस्बे में अछूत जाति माने जाने वाले महार परिवार में जन्मे अम्बेडकर रामजी अम्बेडकर की 14वीं सन्तान थे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि जिस वर्ष डाॅ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ, उसी वर्ष महात्मा गाँधी वकालत पास कर लंदन से भारत वापस आए। डाॅ0 अम्बेडकर के पिता रामजी अम्बेडकर सैन्य पृष्ठभूमि के थे एवं विचारों से क्रान्तिकारी थे। उनके संघर्षस्वरूप सेना में महारों के प्रवेश पर लगी पाबन्दी को हटाकर सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘महार बटालियन’ की स्थापना हुयी। 1891 में सेना से सेवानिवृत्ति पश्चात सन् 1894 में रामजी अम्बेडकर रत्नागिरी जिले में पी0 डब्लू0 डी0 विभाग में स्टोरकीपर के रूप में पुनः सेवा नियुक्त हुए, जहाँ से कालान्तर में उनका स्थानान्तरण सतारा हो गया।


यहीं सतारा के सरकारी स्कूल में अम्बेडकर की प्रारम्भिक शिक्षा सन् 1900 में आरम्भ हुई, जहाँ उनका नाम भीवा रामजी अम्बावाडेकर लिखवाया गया, पर शिक्षक द्वारा उच्चारण की दुरूहता ने अम्बावाडेकर को अम्बेडकर में तब्दील कर दिया। वस्तुतः रत्नागिरी जिले के खेड़ा तालुक में अम्बावाडे़ नामक गाँव में पैतृक स्थल होने के कारण आपके परिवार के नाम के साथ अम्बावाडेकर नाम जुड़ा था। सरकारी स्कूल में प्रवेश करते ही अम्बेडकर को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। मसलन अछूत होने के कारण कक्षा में प्रश्न पूछने की मनाही, अछूत बच्चों के सामूहिक रूप से बैठने और खेलने-कूदने पर प्रतिबन्ध, प्यास लगने पर स्वयं नल खोलकर पानी पीने की पाबन्दी इत्यादि। इन सबसे अम्बेडकर का मनोमस्तिष्क काफी आक्रोशित हुआ एवं उनके अन्तर्मन में बचपन से ही इन कुरीतियों का डटकर सामना करने की प्रवृत्ति जगी। 1904 में आपके पिताजी सेवानिवृति पश्चात बम्बई चले आए और अम्बेडकर का प्रवेश एलफिन्स्टन हाईस्कूल में करा दिया एवं अगले वर्ष 1905 में मात्र 14 वर्ष की उम्र में 9 वर्ष की अबोध कन्या रामाबाई के साथ इनका विवाह कर दिया। यद्यपि शहरी माहौल होने के कारण यहाँ पर जाति-पात की भावना उतनी कठोर नहीं थी पर फिर भी इससे पूर्णतया छुटकारा नहीं मिला। उपरोक्त वर्णित ब्लैकबोर्ड वाली घटना यहीं पर घटित हुई थी। पर इससे भी आप विचलित नहीं हुये और 1907 में प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल परीक्षा उतीर्ण की। निश्चिततः एक अछूत विद्यार्थी की यह उपलब्धि काफी मायने रखती थी सो सत्यशोधक समाज ने अम्बेडकर को सम्मानित करने का फैसला किया और पुरस्कारस्वरूप बुद्ध के जीवन पर आधारित एक किताब भेंट की। यहीं से अम्बेडकर के मन में बौद्ध धर्म के प्रति खिंचाव पैदा होना आरम्भ हो गया।


अम्बेेडकर की प्रतिभा से प्रभावित होकर बड़ौदा के महाराजा शिवाजी राव ने उन्हें छात्रवृत्ति के रूप में 25 रूपये मासिक देना आरम्भ कर दिया। बी0 ए0 करने के पश्चात अम्बेडकर बड़ौदा राज्य में ही नौकरी करने लगे। इस बीच बड़ौदा के महाराजा द्वारा प्राप्त छात्रवृत्ति की सहायता से उन्होंने 1913 में अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश ले लिया। अध्ययन के दौरान ही अमेरिका में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे लाला लाजपत राय से भी आपकी मुलाकात हुयी एवम् इन दोनों महानुभावों में अक्सर समाज सुधार आन्दोलनों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर चर्चा होती। इस बीच वर्ष 1916 में अम्बेडकर ने ‘ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त का विकास’ विषय पर अपनी पी0 एच0 डी0 थीसिस प्रस्तुत की और उसी वर्ष ‘लन्दन स्कूल आॅफ इकानामिक्स’ में शिक्षा ग्रहण करने हेतु वे अमेरिका से लन्दन चले आए। इससे पहले कि वे अर्थशास्त्र में अपना अध्ययन पूरा करते उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और मजबूरन उन्हें फिर से बड़ौदा के महाराज के यहाँ उनके मिलिट््री सेक्रेटरी के रूप में नौकरी शुरू करनी पड़ी। यहाँ भी जातिगत विषमता ने उनका पीछा न छोड़ा और अन्त तक वे एक पारसी होटल में किराये पर टिके रहे। अन्ततः जलालत झेलने की बजाय अपने पद से त्यागपत्र देकर वे पुनः बम्बई चले आए।


जब अम्बेडकर बम्बई आए तो वहाँ समाज सुधार के नाम पर दलित आन्दोलन तीव्रता पकड़ रहा था। 1917 में दलितों के दो सम्मेलन व पुनश्च मार्च 1918 में बडौदा के महाराज शिवाजीराव की अध्यक्षता में बम्बई में ‘अखिल भारतीय दलित सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। इन सम्मेलनों में छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका हक दिलाने हेतु लम्बे-चैड़े वादे किए गए पर अम्बेडकर को इनका नेतृत्व कर रहे द्विज नेताओं पर भरोसा नहीं था। वे अछूतों के लिये पृथक निर्वाचन के पक्ष में थे। बम्बई प्रवास के दौरान ही आजीविका खातिर आपने 1918 में ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ के प्रोफेसर रूप में पुनः नौकरी आरम्भ कर दी। प्रतिभावान और मेधावी होने के चलते उनकी कक्षा लोकप्रिय तो अवश्य थी पर द्विज वर्ग के विद्यार्थी उन्हें उचित सम्मान नहीं देते थे एवम् अन्य साथी प्रोफेसर भी छुआछूत की भावना से देखते थे, सो पुनः आपने जलालत झेलने की बजाय त्यागपत्र देना बेहतर समझा। अब अम्बेडकर की अन्तरात्मा जाग चुकी थी पर वे हर अछूत की सोई हुई आत्मा को जगाना चाहते थे। ऐसे में दलित भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये 1920 में ‘मूक नायक’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया। इससे पूर्व 1919 में साइमन कमीशन के सम्मुख आप दलित वर्ग के प्रतिनिधि रूप में भी गए थे जहाँ आपने दलितों के लिये जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधि सभाओं में सीटें आरक्षित करने और पृथक निर्वाचन के पक्ष में जोरदार तर्क दिए। उन्होंने स्पष्टतः कहा कि- ‘‘होमरूल केवल ब्राह्मणों का ही नहीं, महारों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वशासन हो जाने पर भी सवर्णांे की गुलामी से यदि दलितों को मुक्ति नहीं मिली तो ऐसे होमरूल या स्वशासन का कोई अर्थ नहीं। होमरूल से पहले सामाजिक एकता कायम करने की जरूरत है।’’ डाॅ0 अम्बेडकर के तर्कांे को साइमन आयोग ने स्वीकारा और अंततः मुस्लिमों के लिये पृथक निर्वाचन के साथ-साथ दलितों के दो-दो प्रतिनिनिधियों को भी धारा सभाओं और केन्द्रीय सभा में मनोनीत करने की बात स्वीकार कर ली। निश्चिततः डाॅ0 अम्बेडकर की यह प्रथम राजनैतिक विजय थी। इस बीच कोल्हापुर में साहू महाराज की अध्यक्षता में आयोजित दलित सम्मेलन में भी अम्बेडकर ने भागीदारी की पर उनकी राय मेें ज्ञान और शक्ति के बिना दलित और अछूत कोई प्रगति नहीं कर सकते। सितम्बर 1920 में कोल्हापुर के महाराज साहूजी छत्रपति द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से आपने पुनः लन्दन स्कूल आॅफ इकाॅनामिक्स में प्रवेश ले लिया और साथ-ही-साथ वकालत की पढ़ाई भी करने लगे। इस बीच अम्बेडकर ने विश्व के तीन प्रतिष्ठित अमरीकी, अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त की और एक साथ ही इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून और संविधान के प्रख्यात विद्वान बन गए। कहा जाता है कि अम्बेडकर को अध्ययन में इतनी गहरी रूचि थी कि 1930 के गोलमेज सम्मेलन के दौरान वे 32 बक्से किताबें खरीदकर भारत आए। याद कीजिए राहुल सांकृत्यायन का तिब्बत से खच्चरों पर लादकर बौद्ध साहित्य का लाना।


डाॅ0 अम्बेडकर पर बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबाफुले की अमिट छाप पड़ी थी। बुद्ध से उन्होंने शारीरिक व मानसिक शान्ति का पाठ लिया, कबीर से भक्ति मार्ग तो ज्योतिबाफुले से अथक संघर्ष की प्रेरणा। यही नहीं अमेरिका और लन्दन में अध्ययन के दौरान वहाँ के समाज, परिवेश व संविधान का भी आपने गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय परिवेश में उतारने की कल्पना की। अमेरिका के 14वंे संविधान संशोधन जिसके द्वारा काले नीग्रांे को स्वाधीनता के अधिकार प्राप्त हुए, से वे काफी प्रभावित थे और इसी प्रकार दलितों व अछूतों को भी भारत में अधिकार दिलाना चाहते थे। 20 मार्च 1927 को महाड़ में आपने दलितों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया और उनकी अन्तरात्मा को झकझोरते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वचेतना से स्वाभिमान व सम्मान पैदा करने की बात कही। उन्होंने दलितों का आह्यन किया कि वे सरकारी नौकरियों में बढ़-चढ़कर भाग लें वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा कि- ‘‘अपना घर-बार त्यागो, जंगलों की तरफ भागो और जंगलों पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाकर अपना अधिकार जमाओ।’’ अम्बेडकर के इस भाषण पश्चात सदियों से दमित दलित चेतना ने हुंकार भरी और वे सार्वजनिक स्थलों पर अपना अधिकार जताने निकल पड़े पर साम्प्रदायिक तत्वों को ये दलित चेतना अच्छी न लगी और उन्होंने वहाँ स्थित वीरेश्वर मंदिर पर अछूतों के कब्जे की बात फैला दी। नतीजन, इस घटना ने चिंगारी की भांति फैलकर पूरे महाराष्ट््र में उग्र रूप धारण कर लिया और लोगों ने पुलिस के सामने दलितों पर जमकर हमले किए और उनकी जमीन इत्यादि छीनने लगे। यहाँ तक कि स्वयं अम्बेडकर ने एक पुलिस स्टेशन में शरण ली। इस घटना के पश्चात अम्बेडकर ने कठोर रूप अख्तियार करते हुए सत्याग्रह की धमकी दी और दलितों से अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु मर मिटने की अपील की। अन्ततः मजबूर होकर महाराष्ट््र में दलितों के सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश में बाधा डालने वालों को दण्डित करने का कानून बना। इस आन्दोलन से रातोंरात डाॅ0 अम्बेडकर दलितों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आए।


डाॅ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और डाॅ0 अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डाॅ0 अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डाॅ0 अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी। डाॅ0 अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैरबराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यांे का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो र्गइं। इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हंै बल्कि भारत की राष्ट््रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’ डाॅ0 अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा? क्या मैला नहीं उठायेगा? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट््र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है। यह सोचना फरेब है कि ओस की बूँदांे से किसी की प्यास बुझ सकती है।’’ अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके।

डाॅ0 अम्बेडकर अपनी योग्यता की बदौलत सन् 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी बने एवम् कालान्तर में संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रूप में आपने संविधान का पूरा खाका खींचा और उसमें समाज के दलितांे व पिछड़े वर्गांे की बेहतरी के लिए भी संवैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किए। स्वतंत्रता पश्चात डाॅ0 अम्बेडकर भारत के प्रथम कानून मंत्री भी बने पर महिलाओं को सम्पति में बराबर का हिस्सा देने के लिये उनके द्वारा संसद में पेश किया गया ‘हिन्दू कोड बिल’ निरस्त हो जाने से वे काफी आहत हुए और 10 अक्टूबर 1951 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र देते समय उन्हांेनेे कहा था कि- ‘‘भारत के प्रधानमंत्री द्वारा मुझे बुलाकर मंत्री पद देने की पेशकश और कानून मंत्री बनाने का निमन्त्रण आश्चर्यजनक था, क्योंकि मै तो विपक्ष में था। मुझे खुद ही संदेह था कि अब तक मैं जिनके विरोध में था, उनके साथ कैसे काम कर सकूगाँ? मुझे अपनी योग्यता के बारे में भी संदेह था कि क्या मैं अपने पूर्ववर्ती कानून मंत्रियों जैसा हूँ? फिर भी मैंने अपने संदेह को ताक पर रखकर प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लिया कि देश के नवनिर्माण हेतु मुझमें जितनी भी क्षमता है उसके अनुरूप असहयोग करना चाहिए।’’ 1954 में राज्य सभा में अनुसूचित जाति व जनजाति आयुक्त की रिपोर्ट पर उन्होंने कहा था कि- ‘‘आप पुनः नमक के ऊपर टैक्स लगा दें। यह टैक्स बहुत मामूली था। उस समय जब इसे समाप्त किया गया तो इस मद से 10 करोड़ रूपये आते थे। अब यह 20 करोड़ पर पहुँच सकता है। चूँकि गाँधी जी के नेतृत्व में इस टैक्स के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी इसलिए उनकी याद में इसे समाप्त किया गया। मैं उनकी दिल से इज्जत करता हूँ। इसलिए मेरा सुझाव है कि इस टैक्स को फिर से लगावें और उनकी याद में उसी पैसे से गाँधी ट््रस्ट फण्ड बनाकर दलितों के उद्धार और पुनर्वास पर इसे खर्च करें।’’ डाॅ0 अम्बेडकर दूरदृष्टा और विचारों से क्रांतिकारी थे तथा सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पश्चात वे बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए। एक ऐसा धर्म जो मानव को मानव के रूप में देखता था, किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित था न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अंधविश्वास पर। अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। 1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योेंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। इस धर्म से खराब दुनिया में कोई धर्म नहीं है इसलिए इसे त्याग दो। सभी धर्मों में लोग अच्छी तरह रहते हैं पर इस धर्म में अछूत समाज से बाहर हैं। स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का एक रास्ता है धर्म परिवर्तन। यह सम्मेलन पूरे देश को बतायेगा कि महार जाति के लोग धर्म परिवर्तन के लिये तैयार हैं। महार को चाहिए कि हिन्दू त्यौहारों को मनाना बन्द करें, देवी देवताओं की पूजा बन्द करें, मंदिर में भी न जायें और जहाँ सम्मान न हो उस धर्म को सदा के लिए छोड़ दें।’’ अम्बेडकर की इस घोषणा पश्चात ईसाई मिशनरियों ने उन्हें अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश की और इस्लाम अपनाने के लिये भी उनके पास प्रस्ताव आये। कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिये उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था पर अम्बेडकर ने उसे वापस कर दिया। वस्तुतः अम्बेडकर एक ऐसा धर्म चाहते थे, जिसकी जड़ें भारत में हों। अन्ततः 24 मई 1956 को बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती पर अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने की घोषणा कर दी और अक्टूबर 1956 में दशहरा के दिन नागपुर में हजारों शिष्यों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भगवान बुद्ध के एक उपदेश का हवाला भी दिया- ‘‘हे भिक्षुओं! आप लोग कई देशों और जातियों से आये हुए हैं। आपके देश-प्रदेश में अनेक नदियाँ बहती हैं और उनका पृथक अस्तित्व दिखाई देता है। जब ये सागर में मिलती हंै, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती हैं और समुद्र में समा जाती हैं। बौद्ध संघ भी समुद्र की ही भांति है। इस संघ में सभी एक हैं और सभी बराबर हैं। समुद्र में गंगा या यमुना के मिल जाने पर उसके पानी को अलग पहचानना कठिन है। इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आने पर सभी एक हैं, सभी समान हैं।’’ बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनांे पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डाॅ0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए। उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘‘डाॅ0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’


- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 28 नवंबर 2009

कृष्ण की आकांक्षा : पाँच वर्षों का सुखद वैवाहिक सफर

28 नवम्बर का दिन हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है. इस वर्ष इस तिथि को सबसे महत्वपूर्ण बात रही कि हमारी शादी के पाँच साल पूरे हो गए। 28 नवम्बर, 2004 (रविवार) को मैं और आकांक्षा जीवन के इस अनमोल पवित्र बंधन में बंधे थे. वक़्त कितनी तेजी से करवटें बदलता रहा, पता ही नहीं चला. सरकारी भाषा में कहें तो एक पंचवर्षीय योजना मानो पूरी हो गई. सुख-दुःख के बीच सफलता के तमाम आयाम हमने छुए. कभी जिंदगी सरपट दौड़ती तो कई बार ब्रेक लग जाता. पिछले साल का हादसा अभी भी नहीं भूलता. जब शादी की सालगिरह के अगले दिन ही मेरा एक एक्सिडेंट हुआ और बाएं हाथ का आपरेशन करना पड़ा. एक सप्ताह के लिए मैं हॉस्पिटल में भी रहा. इस बार भी शादी की सालगिरह पर हम साथ नहीं थे, मैं ट्रेनिंग के सिलसिले में बाहर था....पता नहीं यह कैसा संयोग है, पर पाँच साल के इस सफ़र में सालगिरह का दिन हमारे लिए बहुत अजीब रहा. दो बार ट्रेनिंग, एक बार बॉस के साथ एक मीटिंग में काफी रात हो जाना, एक बार सालगिरह के अगले दिन एक्सिडेंट....कुल मिला-जुलाकर अब तक एक ही सालगिरह हम लोग कायदे से उसी दिन सेलिब्रेट कर पाए हैं. हमेशा अपनी सालगिरह सेलिब्रेट करने के लिए हमें किसी अगली तिथि का चुनाव करना पड़ता है, पर वह दिन सिर्फ हमारा होता है. कई बार हम लोग मजाक में कहते भी हैं की विभाग वालों ने हमारी सालगिरह की तारीख नोट कर रखी है, कोई भी ट्रेनिंग और महत्वपूर्ण मीटिंग इसी दिन होगी।


ऐसा ही अजीब संयोग हमारी शादी के बारे में भी है. मैं जहाँ भी पोस्टिंग पर जाता, वहाँ आकांक्षा जी के भ्राता श्री लोगों की भी पोस्टिंग होती. जब मैं पोस्टल स्टाफ कालेज, गाज़ियाबाद में ट्रेनिंग कर रहा था तो इनके बड़े भ्राता श्री नोएडा में एक मल्टीनेशनल कंपनी में थे, पहली पोस्टिंग पर सूरत गया तो इनके भ्राता श्री गुजरात कैडर के IAS अधिकारी थे, वहां से ट्रांसफर होकर लखनऊ में असिस्टेंट पोस्टमास्टर जनरल बना तो इनके एक भ्राता श्री वहां पुलिस उपाधीक्षक थे.....फिर ये रिश्ता होने से कौन रोक सकता था. खैर हम लोगों की शादी 28 नवम्बर, 2004 को धूमधाम के साथ सारनाथ-बनारस में हुई, एक साथ भगवान शंकर जी और भगवान बुद्ध जी का आशीर्वाद मिला। कानपुर में पोस्टिंग के दौरान वर्ष प्यारी बिटिया अक्षिता का जन्म हुआ।


एक-दूसरे के साथ बिताये गए ये पाँच साल सिर्फ इसलिए नहीं महत्वपूर्ण हैं कि हमने पति-पत्नी का सम्बन्ध निभाया, बल्कि इसलिए भी कि हमने एक-दूसरे को समझा, सराहा और संबल दिया. अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच कैसे समय निकल लेते हैं तो इसके पीछे आकांक्षा जी का ही हाथ है. यदि उन्होंने मेरी रचनात्मकता को सपोर्ट नहीं किया होता तो मैं आज एक अदद सिविल सर्वेंट मात्र होता, लेखक-कवि-साहित्यकार के तमगे मेरे साथ नहीं लगे रहते. यह हमारा सौभाग्य है कि हम दोनों साहित्य प्रेमी हैं और कई सामान रुचियों के कारण कई मुद्दों पर खुला संवाद भी कर लेते हैं।


शादी की सालगिरह पर तमाम मित्रजनों-सम्बन्धियों की शुभकामनायें तमाम माध्यमों से प्राप्त हुई...आप सभी का आभार. हिंदी ब्लॉगरों के जन्मदिन ब्लॉग पर भी इस दिन शुभकामनायें दी गईं, आभारी हैं हम दोनों। आप सभी का स्नेह बना रहे ....!!



रविवार, 8 नवंबर 2009

माँस का लोथड़ा

खामोश व वीरान-सी आँखें
आसपास कुछ ढूँढती हैं
पर हाथ में आता है
सिर्फ माँस का लोथड़ा

किसी के लिए वह हिन्दू का है
किसी के लिए मुसलमां का
किसी ने उसे सांप्रदायिकता
का उन्माद बताया
किसी ने धर्मनिरपेक्षता
का राग अलापा

पर उस दुधमुंहे मासूम
का क्या दोष
माँ की छाती समझ
वह लोथड़े को भी मुँह
लगा लेता है
मुँह में दूध की बजाय
खून भर आता है

लाशों के बीच
खून से सना मुँह लिये
एक मासूम का चेहरा

वह इस देश का भविष्य है !!

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2009

ईश्वर की खोज

मैं कई बार सोचता हूँ
ईश्वर कैसा होगा ?
कितनी ही तस्वीरों में
देखा है उसे
पर दिल को तसल्ली नहीं
मैं उससे मिलना चाहता हूँ
बचपन से ही देखा है मैंने
लोगों को पत्थर की मूर्तियों
और पीपलों को पूजते
लोगों की निगाहों से छुपकर
उन पत्थर की मूर्तियों को
उलट-पलट कर देखा
और उन्हें पुकारा भी
पर उसने नहीं सुना
लेकिन मुझे लगता है
जब-जब जरूरत हुई
किसी ने राह दिखायी मुझे
मैं उसे देख नहीं सकता
पर महसूस करता हूँ
शायद वह मेरे ही अंदर
कहीं बैठा है।

शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

विभिन्न रूप हैं दीपावली के

भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माॅल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आॅफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं।
दीपावली भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका बेसब्री से इंतजार किया जाता है। दीपावली माने ष्दीपकों की पंक्तिष्। दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि रावण- वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ चैदह वर्षों के वनवास पश्चात अयोध्या वापस लौटे थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत मंे पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट मंे विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट मंे मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं। दीपावली के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलतः यह यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं।

सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया हैै। दीपावली से जुड़ी एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि ने देवताओं के साथ देवी लक्ष्मी को भी बन्दी बना लिया। देवी लक्ष्मी को मुक्त कराने भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरा और देवी को मुक्त कराया। इस अवसर पर राजा बालि ने भगवान विष्णु से वरदान लिया था कि जो व्यक्ति धनतेरस, नरक-चतुर्दशी व अमावस्या को दीपक जलाएगा उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। तभी से इन तीनों पर्वांे पर दीपक जलाया जाता है और दीपावली के दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है। धनतेरस के दिन धन एवं ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी की दीपक जलाकर पूजा की जाती है और प्रतीकात्मक रूप में लोग सोने-चांदी व बर्तन खरीदते हैं। धनतेरस के अगले दिन अर्थात कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाने की परंपरा है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान कृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध किया था। नरक चतुर्दशी पर घरों की धुलाई-सफाई करने के बाद दीपक जलाकर दरिद्रता की विदाई की जाती है। वस्तुतः इस दिन दस महाविद्या में से एक अलक्ष्मी (धूमावती) की जयंती होती है। अलक्ष्मी दरिद्रता की प्रतीक हैं, इसीलिए चतुर्दशी को उनकी विदाई कर अगले दिन अमावस्या को दस महाविद्या की देवी कमलासीन माँ लक्ष्मी (देवी कमला) की पूजा की जाती है। नरक चतुर्दशी को ‘छोटी दीपावली’ भी कहा जाता है। दीपावली के दिन लोग लईया, खील, गट्टा, लड्डू इत्यादि प्रसाद के लिए खरीदते हैं और शाम होते ही वंदनवार व रंगोली सजाकर लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं और फिर पूरे घर में दीप जलाकर माँ लक्ष्मी का आवाह्न करते हैं। व्यापारी वर्ग पारंपरिक रूप से दीपावली के दिन ही नई हिसाब-बही बनाता है और किसान अपने खेतों पर दीपक जलाकर अच्छी फसल होने की कामना करते हंै। इसके बाद खुशियों के पटाखों के बीच एक-दूसरे से मिलने और उपहार व मिठाईयों की सौगात देने का सिलसिला चलता है।

दीपावली का त्यौहार इस बात का प्रतीक है कि हम इन दीपों से निकलने वाली ज्योति से सिर्फ अपना घर ही रोशन न करें वरन् इस रोशनी में अपने हृदय को भी आलोकित करें और समाज को राह दिखाएं। दीपक सिर्फ दीपावली का ही प्रतीक नही वरन् भारतीय सभ्यता में इसके प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है। यहाँ तक कि परिवार में किसी की गंभीर अस्वस्थता अथवा मरणासन्न स्थिति होने पर दीपक बुझ जाने को अपशकुन भी माना जाता है। अगर हम इतिहास के गर्भ में झांककर देखें तो सिंधु घाटी सभ्यता की ख्ुादाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनज़ोदड़ो की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की श्रृंखला थी। इसमें कोई शक नहीं कि दीपकों का आविर्भाव सभ्यता के साथ ही हो चुका था, पर दीपावली का जन-जीवन में पर्व रूप में आरम्भ श्री राम के अयोध्या आगमन से ही हुआ।

भारत के विभिन्न राज्यों में इस त्यौहार को विभिन्न रूपों मे मनाया जाता है। वनवास पश्चात श्री राम के अयोध्या आगमन को उनका दूसरा जन्म मान केरल में कुछ अदिवासी जातियां दीपावली को राम के जन्म-दिवस के रूप में मनाती हंै। गुजरात में नमक को साक्षात् लक्ष्मी का प्रतीक मान दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है तो राजस्थान में दीपावली के दिन घर मंे एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाईयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हंै। यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाये तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात् लक्ष्मी का आगमन माना जाता है। उत्तरांचल के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं तो हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियां इस दिन यक्ष पूजा करती हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में दीपावली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यहाँ पर यह तथ्य गौर करने लायक है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।
ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी वर्ष 1833 में दीपावली के दिन ही प्राण त्यागे थे। देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी दीपावली का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। वर्ष 2005 में ब्रिटिश संसद में दीपावली-पर्व के उत्सव पर भारतीय नृत्य, संगीत, रंगोली, संस्कृत मंत्रों के उच्चारण व हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना का आयोजन किया गया। ब्रिटेन के करीब सात लाख हिंदू इस पर्व को उत्साह से मनाते हैं। सन् 2004 में तो ब्रिटेन ने इस पर्व पर डाक-टिकट भी जारी किया था। अमेरिका के ह्मइट हाउस में भी दीपावली का त्यौहार औपचारिक रूप से आयोजित करने की मांग उठ रही है।

भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धनदेवी लक्ष्मी के कई नाम और रूप मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्राकट्य का दिन माना जाता है। भारतीय परम्परा उल्लू को लक्ष्मी जी का वाहन मानती है पर तमाम भारतीय ग्रन्थों में कुछ अन्य वाहनों का भी उल्लेख है। महालक्ष्मी स्त्रोत में गरूड़ तो अथर्ववेद के वैवर्त ने हाथी को लक्ष्मी जी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू है। लेकिन प्राचीन यूनान में धन सम्पदा की देवी के तौर पर ूपजी जाने वाली ‘हेरा‘ का वाहन मयूर है। तमाम देशों में लक्ष्मी पूजन के पुरातात्विक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। कम्बोडिया में मिली एक मूर्ति में शेषनाग पर आराम कर रहे विष्णुजी के पैर एक महिला दबा रही है, जो लक्ष्मी है। कम्बोडिया में ही लक्ष्मी की कांस्य प्रतिमा भी मिली है। प्राचानी यूनानी सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति उत्कीर्ण है। रोम के लम्पकश से प्राप्त एक चाँदी की थाली पर भी लक्ष्मी की आकृति है। इसी प्रकार श्रीलंका के पोलेरूमा में पुरातात्विक खनन के दौरान अन्य भारतीय देवी-देवताओं के साथ-साथ लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई थी। नेपाल, थाईलैण्ड, जावा, सुमात्रा, मारीशस, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों में धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में डिआ लुक्री, प्राचीन रोम में देवी फार्चूना, तो ग्रीक परम्परा में दमित्री को धन की देवी रूप में पूजा जाता है। जिस तरह भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी-काली-सरस्वती का धार्मिक महत्व है, उसी प्रकार यूरोप में एथेना-मिनर्वा-एलोरा का महत्व है।

दीपवाली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपक्ष को गोवर्धन पूजा की जाती है। इस पर्व पर गाय के गोबर से गोवर्धन की मानव आकृति बना उसके चारों तरफ गाय, बछडे़ और अन्य पशुओं के साथ बीच में भगवान कृष्ण की आकृति बनाई जाती है। इसी दिन छप्पन प्रकार की सब्जियों द्वारा निर्मित अन्नकूट एवं दही-बेसन की कढ़ी द्वारा गोवर्धन का पूजन एवं भोग लगाया जाता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत में यह पर्व हमें पशुओं मुख्यतः गाय, पहाड़, पेड़-पौधों, ऊर्जा के रूप में गोबर व अन्न की महत्ता बताता हैै। गाय को देवी लक्ष्मी का प्रतीक मानकर लक्ष्मी पूजा के बाद गौ-पूजा की भी अपने देश में परम्परा रही है। पौराणिक मान्यतानुसार द्वापर काल में अपने बाल्य काल में श्री कृष्ण ने नन्दबाबा, यशोदा मैया व अन्य ब्रजवासियों को बादलों के स्वामी इन्द्र की पूजा करते हुए देखा ताकि इंद्र देवता वर्षा करें और उनकी फसलें लहलहायें व वे सुख-समृद्धि की ओर अग्रसर हों। श्रीकृष्ण ने ग्रामवासियों को समझाया कि वर्षा का जल हमें गोवर्धन पर्वत से प्राप्त होता है न कि इंद्र की कृपा से। इससे सहमत होकर ग्रामवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा आरम्भ कर दी। श्रीकृष्ण ब्रजवासियांे को इस बात का विश्वास दिलाने के लिए कि गोवर्धन जी उनकी पूजा से प्रसन्न हैं, पर्वत के अंदर प्रवेश कर गए व सारी समाग्रियों को ग्रहण कर लिया और अपने दूसरे स्वरूप मंे ब्रजवासियों के साथ खडे़ होकर कहा-देखो! गोवर्धन देवता प्रसन्न होकर भोग लगा रहे हैं, अतः उन्हें और सामाग्री लाकर चढ़ाएं। इंद्र को जब अपनी पूजा बंद होने की बात पता चली तो उन्हांेने अपने संवर्तक मेघों को आदेश दिया कि वे ब्रज को पूरा डुबो दें। भारी वर्षा से घबराकर जब ब्रजवासी श्रीकृष्ण के पास पहुँचे तो उन्होंनेे उनके दुखों का निवारण करने हेतु अपनी तर्जनी पर पूरे गोवर्धन पर्वत को ही उठा लिया। पूरे सात दिनों तक वर्षा होती रही पर ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित पडे़ रहे। सुदर्शन चक्र ने संवर्तक मेघों के जल को सुखा दिया। अंततः पराजित होकर इंद्र श्रीकृष्ण के पास आए और क्षमा मांगी। उस समय सुरभि गाय ने श्रीकृष्ण का दुग्धाभिषेक किया और इस अवसर पर छप्पन भोग का भी आयोजन किया गया। तब से भारतीय संस्कृति में गोवर्धन पूजा और अन्नकूट की परम्परा चली आ रही है।

कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बानी-वाले भारतीय समाज में एक ही त्यौहार को मनाने के अन्दाज में स्थान परिवर्तन के साथ कुछ न कुछ परिवर्तन दिख ही जाता है। वक्त के साथ दीपावली का स्वरूप भी बदला है। पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। पर वर्तमान में जिस प्रकार बल्बों और झालरों का प्रचलन बढ़ रहा है, वह दीपावली के परम्परागत स्वरूप के ठीक उलटा है। एक ओर कोई व्यक्ति बीमार है तो दूसरी ओर अन्य लोग बिना उसके स्वास्थ्य की परवाह किए लाउडस्पीकर बजाए जा रहे हैं, एक व्यक्ति समाज में अपनी हैसियत दिखाने हेतु हजारों रुपये के पटाखे फोड़ रहा है तो दूसरी ओर न जाने कितने लोग सिर्फ एक समय का खाना खाकर पूरा दिन बिता देते हैं। एक अनुमानानुसार हर साल दीपावली की रात पूरे देश में करीब तीन हजार करोड़ रूपये के पटाखे जला दिए जाते हैं और करोड़ांे रूपये जुए में लुटा दिए जाते हैं। क्या हमारी अंतश्चेतना यह नहीं कहती कि करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ने के बजाय भूखे-नंगे लोगों हेतु कुछ प्रबन्ध किए जायें? क्या पटाखे फोड़कर व जोर से लाउडस्पीकर बजाकर हम पर्यावरण को प्रदूषित नहीं कर रहे हैं? त्यौहार के नाम पर सब छूट है के बहाने अपने को शराब के नशे में डुबोकर मारपीट व अभद्रता करना कहाँ तक जायज है? निश्चिततः इन सभी प्रश्नों का जवाब अगर समय रहते नहीं दिया गया तो अगली पीढ़ियाँ शायद त्यौहारों की वास्तविक परिभाषा ही भूल जायें।

रविवार, 27 सितंबर 2009

विजय का पर्व : दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन " दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण -सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है। केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै। गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।
भारत त्यौहारों का देश है और हर त्यौहार कुछ न कुछ संदेश देता है-बन्धुत्व भावना, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास। त्यौहार का मतलब ही होता है सारे गिले-शिकवे भूलकर एक नए सिरे से दिन का आगाज। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं पर उद्देश्य अंततः मेल-जोल एवं बंधुत्व की भावना को बढ़ाना ही है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। समाज के हर वर्ग के लोगों को एक साथ मेल-जोल और भाईचारे के साथ बिठाने हेतु ही त्यौहारों का आरम्भ हुआ। यह एक अलग तथ्य है कि हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं पर अंततः इनका उद््देश्य मानव-कल्याण ही होता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

तुलसीदास ने आरंभ की रामलीला

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''

सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारों ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 में प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारों से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राहमणों ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी में किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

बदल रही है हिन्दी


आज हिन्दी भारत ही नहीं वरन् पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, इराक, इंडोनेशिया, इजरायल, ओमान, फिजी, इक्वाडोर, जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस, ग्रीस, ग्वाटेमाला, सउदी अरब, पेरू, रूस, कतर, म्यंमार, त्रिनिदाद-टोबैगो, यमन इत्यादि देशों में जहाँ लाखों अनिवासी भारतीय व हिन्दी -भाषी हैं, में भी बोली जाती है। चीन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, व जापान इत्यादि राष्ट्र जो कि विकसित राष्ट्र हैं की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं वरन् उनकी खुद की मातृभाषा है। फिर भी ये दिनों-ब-दिन तरक्की के पायदान पर चढ़ रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अंग्रेजी के बिना विकास नहीं हो पाने की अवधारणा को इन विकसित देशों ने परे धकेल दिया है। निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल......आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है। भूमण्डलीकरण एवं सूचना क्रांति के इस दौर में जहाँ एक ओर ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बढ़ा है, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों ने भी विकासशील व अविकसित राष्ट्रों की संस्कृतियों पर प्रहार करने की कोशिश की है। सूचना क्रांति व उदारीकरण द्वारा सारे विश्व के सिमट कर एक वैश्विक गाँव में तब्दील होने की अवधारणा में अपनी संस्कृति, भाषा, मान्यताओं, विविधताओं व संस्कारों को बचाकर रखना सबसे बड़ी जरूरत है। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जहाँ हमारी प्राचीन संपदाओं का पेटेंट कराने में जुटी हैं वहीं इनके ब्राण्ड-विज्ञापनों ने बच्चों व युवाओं की मनोस्थिति पर भी काफी प्रभाव डाला है, निश्चिततः इन सबसे बचने हेतु हमंे अपनी आदि भाषा संस्कृत व हिन्दी की तरफ उन्मुख होना होगा।



हम इस तथ्य को नक्कार नहीं सकते कि हाल ही में प्रकाशित आॅक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन-आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा है। अमेरिका जो कि अपनी भाषा और अपनी पहचान के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानता, हिन्दी सीखने में उसकी रूचि का प्रदर्शन निश्चिततः भारत के लिए गौरव की बात है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि-‘‘हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे 21वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखनी चाहिए।’’ इसी क्रम में अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र की प्रतियां अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और मलयालम में भी छपवाकर वितरित कीं। ओबामा के राष्ट्रपति चुनने के बाद सरकार की कार्यकारी शाखा में राजनैतिक पदों को भरने के लिए जो आवेदन पत्र तैयार किया गया उसमें 101 भाषाओं में भारत की 20 क्षेत्रीय भाषाओं को भी जगह दी गई। इनमें अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, माघी व मराठी जैसी भाषायें भी शामिल हैं, जिन्हें अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान तक नहीं मिल पाया है। ओबामा ने रमजान की मुबारकवाद उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी दी। यही नहीं टेक्सास के स्कूलों में पहली बार ‘नमस्ते जी‘ नामक हिन्दी की पाठ्यपुस्तक को हाईस्कूल के छा़त्रों के लिए पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। 480 पेज की इस पुस्तक को भारतवंशी शिक्षक अरूण प्रकाश ने आठ सालों की मेहनत से तैयार की है। इसी प्रकार जब दुनिया भर में अंग्रेजी का डंका बज रहा हो, तब अंग्रेजी के गढ़ लंदन में बर्मिंघम स्थित मिडलैंड्स वल्र्ड टेªड फोरम के अध्यक्ष पीटर मैथ्यूज ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिंदी समेत कई अन्य भाषाएं सीखने की नसीहत दी है। यही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है जो किसी दूसरे देश की संसद, ब्रिटेन के हाउस आॅफ लॉर्ड्स में प्रदान किया जाता है। आज अंग्रेजी के दबदबे वाले ब्रिटेन से हिन्दी लेखकों का सबसे बड़ा दल विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपने खर्च पर पहुँचता है।



निश्चिततः भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बडे़ उपभोक्ता बाजार कीे भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन समूहों ने हिन्दी में अपने प्रकाशन आरम्भ किए हैं तो बी0 बी0 सी, स्टार प्लस, सोनी, जी0 टी0 वी0, डिस्कवरी आदि अनेक चैनलों ने हिन्दी में अपने प्रसारण आरम्भ कर दिए हैं। हिन्दी फिल्म संगीत तथा विज्ञापनों की ओर नजर डालने पर हमें एक नई प्रकार की हिन्दी के दर्शन होते हैं। यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों में अब क्षेत्रीय बोलियों भोजपुरी इत्यादि का भी प्रयोग होने लगा है और विज्ञापनों के किरदार भी क्षेत्रीय वेश-भूषा व रंग-ढंग में नजर आते हैं। निश्चिततः मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदा की है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्धता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। हाल ही मे विदेश मंत्रालय ने इसी रणनीति के तहत प्रति वर्ष दस जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है, जिसमें विदेशों मे स्थित भारतीय दूतावासों में इस दिन हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया जाएगा। आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में देश का प्रथम हिन्दी संग्रहालय तैयार किया जा रहा है, जिसमें हिन्दी विद्वानों की पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्र और उनसे जुड़ी अन्य सामग्रियाँ रखी जायेंगी।



आज की हिन्दी वो नहीं रही..... बदलती परिस्थितियों में उसने अपने को परिवर्तित किया है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, क्षेत्रीय अखबारों का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की हैं। सूचना क्रांति के दौर में कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान सी-डैक ने निःशुल्क हिन्दी साटवेयर जारी किया है, जिसमें अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने आफिस हिन्दी के द्वारा भारतीयों के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आसान कर दिया है। आई0 बी0 एम0 द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर में हिन्दी भाषा के 65,000 शब्दों को पहचानने की क्षमता है एवं हिन्दी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के लिए आवाज पहचानने की प्रणाली का भी विकास किया गया है जो कि शब्दों को पहचान कर कम्प्यूटर लिपिबद्ध कर देती है। एच0 पी0 कम्प्यूटर्स एक ऐसी तकनीक का विकास करने में जुटी हुई है जो हाथ से लिखी हिन्दी लिखावट को पहचान कर कम्प्यूटर में आगे की कार्यवाही कर सके। चूँकि इण्टरनेट पर ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी में है और अपने देश में मात्र 13 फीसदी लोगों की ही अंग्रेजी पर ठीक-ठाक पकड़ है। ऐसे में हाल ही में गूगल द्वारा कई भाषाओं में अनुवाद की सुविधा प्रदान करने से अंग्रेजी न जानने वाले भी अब इण्टरनेट के माध्यम से अपना काम आसानी से कर सकते हैं। अपनी तरह की इस अनोखी व पहली सेवा में हिन्दी, तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है। यह सेवा इण्टरनेट पर www.google.in/translate_t टाइप कर हासिल की जा सकती है। आज हिन्दी के वेब पोर्टल समाचार, व्यापार, साहित्य, ज्योतिषी, सूचना प्रौद्योगिकी एवं तमाम जानकारियां सुलभ करा रहे हैं। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी के प्रति दुराग्रह खत्म हो गया है। निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है।
- कृष्ण कुमार यादव

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा: हिन्दी बनी राजभाषा परन्तु....



यह एक सच्चाई है कि स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी ने अंग्रेजी राज के विरूद्ध लोगों को जोड़ने का कार्य किया पर स्वतंत्रता पश्चात उसी अंग्रेजी को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बना दिया गया। यदि हम व्यवहारिक धरातल पर बात करें तो हिन्दी सदैव से राजभाषा, मातृभाषा व लोकभाषा रही है पर दुर्भाग्य से हिन्दी कभी भी राजप्रेयसी नहीं रही। स्वतंत्रता आंदोलन में जनभाषा के रूप में लोकप्रियता, विदेशी विद्वानों द्वारा हिन्दी की अहमियत को स्वीकारना, तमाम समाज सुधारकों व महापुरूषों द्वारा हिन्दी को राजभाषा/राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की बातें, पर अन्ततः संविधान सभा ने तीन दिनों तक लगातार बहस के बाद 14 सितम्बर 1949 को पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के परन्तुक के साथ ही हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।


राष्ट्रभाषा के सवाल पर संविधान सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आए। जी0 एस0 आयंगर ने मसौदा पेश करते हुए हिन्दी की पैरोकारी की पर अंततः कहा कि - ‘‘हिन्दी आज काफी समुन्नत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।’’ यद्यपि हिन्दी के पक्ष में काफी सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। पुरूषोतम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा कि विश्व में हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है तो सेठ गोविन्द दास ने कहा कि- ‘‘इस देश में हजारों वर्षों से एक संस्कृति है। अतः यहाँ एक भाषा और एक लिपि ही होनी चाहिए।’’ आर0 वी0 धुलेकर ने काफी सख्त लहजे में हिन्दी की पैरवी करते हुए कहा कि- ‘‘मैं कहता हूँ हिन्दी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा है। हिन्दी के राष्ट्रभाषा/राजभाषा हो जाने के बाद संस्कृत विश्व भाषा बनेगी। अंग्रेजों के नाम 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।’’ स्वयं पं0 नेहरू ने भी हिन्दी की पैरवी में कहा था- ‘‘पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।’’


निश्चिततः इस आधार पर कि हिन्दी भाषा समुन्नत नहीं है, राजकाज की भाषा रूप में पन्द्रह साल तक अंग्रेजी को स्थान दे दिया गया। इस बात पर कालान्तर में काफी बहस हुयी। कुछेक का तो मानना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन के अधिकतर नेताओं की दिली इच्छा हिन्दी को राष्ट्रभाषा/राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की थी पर ऐसे सदस्य जो मात्र कानूनविद होने के नाते संविधान सभा से जोड़ दिए गए, वे अंग्रेज भक्त थे और उन्होंने प्रयास करके अंग्रेजी की महत्ता भारत के राजकाज व न्यायालयों पर सदैव हेतु थोप दी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा- ‘‘यदि अंग्रेजी अच्छी है और उसे बनाए रखना चाहिए तो अंग्रेज भी अच्छे थे, उन्हें भी राज करने बुला लीजिए।’’

- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 12 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा : राष्ट्रीय आन्दोलन की भाषा बनी हिन्दी



राजनैतिक स्तर पर भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु कई समाज सुधारकों व साहित्यकारों ने यत्न किए। गुजराती कवि नर्मद (1833-86) ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव किया तो सन् 1918 में मराठी भाषी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से घोषित किया कि- हिन्दी भारत की राजभाषा होगी। उसी समय देश की राजनीति में एक नक्षत्र की भांति तेजी से उभर रहे गुजराती भाषी महात्मा गाँधी ने भी कहा -''हिन्दी ही देश को एकसूत्र में बाँध सकती है। मुझे अंग्रेजी बोलने में शर्म आती है और मेरी दिली इच्छा है कि देश का हर नागरिक हिन्दी सीख ले व देश की हर भाषा देवनागरी में लिखी जाये।'' उन्होनें इसको तार्किक रूप देते हुए कहा कि-‘‘सभी भाषाओं को एक ही लिपि में लिखने से वही लाभ होगा जो यूरोप की तमाम भाषाओं को एक ही लिपि में लिखे जाने से हुआ। इससे तमाम यूरोपीय भाषाएँ अधिक विकसित और समुन्नत हुयीं।’’ 1918 में इन्दौर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभा में महात्मा गाँधी ने दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचारकों को भेजा, इनमें स्वयं उनके पुत्र देवदास गाँधी भी थे। 1919 के बाद तो गाँधी जी ने कांग्रेस को अपने सभी कार्य हिन्दी में करना एक तरह से बाध्यकारी बना दिया। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि जिसे हिन्दी नहीं आती उसे कांग्रेस के अधिवेशनों में बोलने का अवसर नहीं दिया जाएगा। इसी से प्रभावित होकर सरदार पटेल ने 1919 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया और अधिवेशन के स्वागत मंत्री पी0 जी0 मावलंकर, जो कि कालांतर में प्रथम लोकसभा अध्यक्ष बने, ने अधिवेशन के सभी दस्तावेज हिन्दी में तैयार किए।





स्वामी दयानन्द सरस्वती, केशव चन्द्र सेन, सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य कृपलानी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे अनेक अहिन्दी भाषी नेताओं ने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की पैरवी की। 20 दिसम्बर, 1928 को कलकत्ता में राजभाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने देश के प्रत्येक नागरिक विशेषकर नवयुवकों से हिन्दी सीखने की अपील की तथा इस बात पर खेद भी व्यक्त किया कि वे स्वयं अच्छी हिन्दी नहीं बोल पाते हैं। 1935 में मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री रूप में सी0 राजगोपालाचारी ने हिन्दी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। 1935 में ही बेल्जियम के नागरिक डाॅ0 कामिल बुल्के इसाई धर्म प्रचार के लिए भारत आए पर फ्रेंच, अंग्रेजी, लेमिश, आयरिश भाषाओं पर अधिकार होने के बाद भी हिन्दी को ही अभिव्यक्ति का माध्यम चुना। अपने हिन्दी ज्ञान में वृद्धि हेतु उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0 किया और तुलसी दास को अपने प्रिय कवि के रूप में चुनकर ‘रामकथा उद्भव और विकास’ पर डी0 फिल की उपाधि भी प्राप्त की। निश्चिततः स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी राष्ट्रीय आन्दोलन और भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति की भाषा बनी।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा बनाम मैकाले नीति

सन् 1835 एक निर्णायक वर्ष था जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने मैकाले की अनुशंसा पर 7 मार्च 1835 को अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी के स्कूल खुलने लगे। हिन्दी को अलग-थलग करने का एक अन्य कारण अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति भी थी। अंग्रेजी शिक्षा का प्रस्ताव पास होने के बाद भी अदालतों के कामकाज की भाषा फारसी ही रही। सर सैयद अहमद खान ने भी हिन्दी को एक गँवारी बोली बताकर अंग्रेजों को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार चेष्टा की। इस बीच सन् 1893 में बनारस में ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ का गठन इन सबकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दी को एक भाषा के रूप में बढ़ावा देने हेतु किया गया। बनारस के राजा शिव प्रसाद भी हिन्दी की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए और निरन्तर यत्नशील रहे। सन् 1913 में शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर के रूप में राजा शिवप्रसाद ने हिन्दी को विचलन से बचाने हेतु ठेठ हिन्दी का आश्रय लिया जिसमें फारसी-अरबी के चालू शब्द भी शामिल थे। सन् 1913 में ही हिन्दी में पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का निर्माण हुआ तो सन् 1931 में हिन्दी की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ का निर्माण किया गया।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा


भारत सदैव से विभिन्नताओं का देश रहा है। आज संसार भर में लगभग 5000 भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं । उनमें से लगभग 1652 भाषाएँ व बोलियाँ भारत में सूचीबद्ध की गई हैं जिनमें 63 भाषाएँ अभारतीय हैं । चूँकि इन 1652 भाषाओं को बोलने वाले समान अनुपात में नहीं हैं अतः संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाओं को शामिल किया गया जिन्हें देश की कुल जनसंख्या के 91 प्रतिशत लोग प्रयोग करते हैं। इनमें भी सर्वाधिक 46 प्रतिशत लोग हिन्दी का प्रयोग करते हैं अतः हिन्दी को राजभाषा को रूप में वरीयता दी गयी। अधिकतर भारतीय भाषाएं दो समूहों से आती हैं- आर्य भाषा परिवार की भाषाएं और द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाएं। द्रविड़ भाषाओं व बोलियों का एक अलग ही समूह हैं और आर्य भाषाओं के आगमन के बहुत पहले से ही भारत में उनका उपयोग किया जा रहा है। तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम प्रमुख द्रविड़ भाषाएं हैं।



आर्य भाषा में सबसे प्राचीन संस्कृत भाषा (2500 ई0 पू0- 500 ई0 पू0) मानी जाती है। वेदों की रचना भी संस्कृत में की गई। संस्कृत माने परिमार्जित अथवा विशुद्ध। संस्कृत किसी समय जनभाषा थी पर व्याकरण के कठोर नियमों और उच्चारण की कठिनता के कारण संस्कृत विशिष्ट वर्ग की भाषा बनकर रह गयी। संस्कृत के साथ ही उस समय कई लोकभाषाएँ प्रचलित थीं, जिनसे संस्कृत के विभिन्न रूप प्रचलित हुए। संस्कृत के इन विभिन्न रूपों से विभिन्न प्राकृतों व अपभ्रंशों का विकास हुआ और अंत में हिन्दी आदि प्रान्तीय भाषाओं (1000 ई0 के लगभग) का विकास हुआ। कुल 7 अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास माना जाता है, जिसमें शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी (खड़ी बोली, ब्रजभाषा, वांगरू, कन्नौजी व बुन्देली बोलियाँ), राजस्थानी (मारवाडी़, जयपुरी, मालवी व मेवाती बोलियाँ), और गुजराती भाषा, महाराष्ट्री से मराठी भाषा (दक्षिणी, कोंकणी, नागपुरी व बरारी बोलियाँ), मागधी से भोजपुरी मैथिली, मगही, बंगला, उड़िया व असमी भाषाएं, अर्धमागधी से पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली व छत्तीसगढ़ी बोलियाँ), पैशाची से लहँदी, ब्राचउ से सिंधी व पंजाबी भाषा तथा खस से पहाड़ी भाषाओं का उद्भव हुआ।



आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी भाषा हुई। कबीर की निर्गुण भक्ति एवम् भक्ति काल के सूफी-संतों ने हिन्दी को काफी समृद्ध किया। कालांतर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत और गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की अवधी में रचना कर हिन्दी को और भी जनप्रिय बनाया। अमीर खुसरो ने इसे ‘हिंदवी’ गाया तो हैदराबाद के मुस्लिम शासक कुली कुतुबशाह ने इसे ‘जबाने हिन्दी’ बताया। स्वतंत्रता तक हिन्दी ने कई पड़ावों को पार किया व दिनों-ब-दिन और भी समृद्ध होती गई। सन् 1741 में राम प्रसाद निरंजनी द्वारा खड़ी बोली में प्रथम ग्रंथ ‘भाषा योग्यवासिष्ठ’ लिखा गया तो सन् 1796 में देवनागरी लिपि में टाइप की गयी प्रथम प्रिंटिंग तैयार हुई। सन् 1805 में फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता के लिए अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से लल्लू लाल जी ने खड़ी बोली गद्य में ‘प्रेमसागर’ लिखा जिसमें भागवत दशम्स्कंध की कथा वर्णित की गई। यह अंग्रेजों द्वारा भारतीय संस्कृति को हिन्दी के माध्यम से समझने का एक शुरूआती प्रयास था। सन् 1826 में कानपुरवासी पं0 जुगल किशोर ने हिन्दी का प्रथम समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ निकालना शुरू किया, जो एक वर्ष बाद ही सहायता के अभाव में बंद हो गया।


- कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

40 साल का हुआ इन्टरनेट

भूमण्डलीकरण को वास्तविक रूप में फलीभूत करने वाला सबसे प्रमुख तत्व ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ है और सूचना प्रौद्योगिकी को जन-जन तक पहुँचाने का सबसे सरल माध्यम ‘इण्टरनेट’ है। इण्टरनेट ने समग्र विश्व को एक लघु गाँव में परिवर्तित कर दिया जहाँ एक माउस के क्लिक मात्र से सूचनाओं का संजाल पसरता जाता है। इण्टरनेट ने न सिर्फ चकित करने वाली क्षमताएँ हासिल की है, बल्कि काफी हद तक उसने दुनिया की सूरत भी बदल दी है। आलम यह है कि विकसित देशों में कम्प्यूटर और इण्टरनेट इन्सान के सबसे करीबी मित्र बन गये हैं। बदलते समय में इण्टरनेट ने वैश्विक आर्थिक-सामाजिक विकास को आशातीत रतार उपलब्ध कराने के साथ-साथ मानव को भौतिक समृद्धि के शीर्ष पर भी पहुँचाया।

2 सितम्बर 1969 को आरम्भ हुये इंटरनेट ने वर्ष 2009 में 40 साल पूरे कर लिये। 1969 में अमेरिकी शहर लाॅसएंजिल्स के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की एक प्रयोगशाला में लेन क्लेनराॅक अपने साथियों के साथ दो कम्प्यूटरों के मध्य डाटा का आदान-आदान करने की कोशिश में वह अद्भुत कार्य कर बैठे, जिसने भविष्य में लोगों की दुनिया ही बदल दी। इसके जरिए दुनिया के लोग एक-दूसरे से सीधे जुड़ गए। दो कम्प्यूटरों के बीच 15 मीटर लंबी केबल से डाटा पास हुआ और इसी के साथ इंटरनेट का जन्म हुआ। वस्तुतः शीत युद्ध के दौरान रूस ने जब स्पुतनिक सेटेलाइट लांच किया तो अमेरिकी सरकार काफी चिंतित हो उठी। अमेरिका में एक ऐसे संचार माध्यम की जरूरत महसूस की जाने लगी जिससे सैन्य-शक्ति में इजाफा हो सके। साथ ही संचार को और तीव्र व व्यापक बनाया जा सके। इसी को मद्देनजर रखते हुए मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी के डाॅ0 जे0सी0आर0 लीक लीडर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। 1958 में एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी बनाकर इसके अंतर्गत अर्पानेट तकनीक की शुरूआत की गई। अर्पानेट के तहत 1969 में सर्वप्रथम प्रायोगिक तौर पर चार विश्वविद्यालयों को इससे जोड़ा गया और इसी क्रम में अन्ततः 2 सितम्बर 1969 को इंटरनेट का आरम्भ हुआ।
कालान्तर में इण्टरनेट के क्षेत्र में तमाम क्रान्तिकारी परिवर्तन आये। 1971 में टीसीपी और आईपी प्रोटोकाल बनने से ईमेल सेवा आरम्भ हुई और बीबीएन के इंजीनियर रे टाॅमलिंसन ने प्रथम ईमेल भेजा। 1983 में डोमेन का आरम्भ हुआ एवं एक साल बाद नाम के अंत में डाॅट काॅम, डाॅट इन लगाया जाने लगा। 1988 में पहले इंटरनेट वायरस ने लाखों कंम्प्यूटर्स को क्षति पहुँचाई। 1990 में टिम बर्नर्स ली ने वल्र्ड वाइड वेब का विकास किया तो 1993 में प्रथम वेब ब्राउजर मोजैक का विकास हुआ। इसी क्रम में 1994 में प्रथम बिजनेस वेब ब्राउजर नेटस्केप का आरम्भ हुआ। 1998 तो इण्टरनेट के लिए और भी क्रांतिकारी वर्ष साबित हुआ, जब गूगल सर्च इंजन के विकास ने इंटरनेट की दुनिया में सब कुछ बदल के रख दिया। इसी वर्ष डोमेन के लिए इंटरनेट कारपोरेशन फाॅर असाइंड नेम्स एंड नंबर्स (आईसीएएनएन) संस्था का गठन भी हुआ। 2004-05 के दौरान फेसबुक व विडियो शेयर करने के लिए यू-ट्यूब तकनीक आरम्भ हुई।

इण्टरनेट को 20वीं सदी का सबसे बड़ा आविष्कार माना जाता है, जो 21वीं सदी को अपने इशारों पर परिचालित करेगा। इण्टरनेट पर बढ़ती निर्भरता के साथ इसका प्रयोग अब मात्र सूचनाओं के आदान-प्रदान और शोध कार्यांे के लिये ही नहीं बल्कि मनोरंजन, व्यापार, खरीददारी, नीलामी, संचार, बैंकिंग, शिक्षा, यात्रा कार्यक्रम, बधाई सन्देशों को भेजने, जीवन साथी की खोज और यहाँ तक कि जिन्दगी जीने का जरिया बन चुका है। आज इण्टरनेट अपने आप में पूरी दुनिया को समेटे हुये है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस समय भारत में 8 करोड़ से भी ज्यादा लोग इण्टरनेट यूज कर रहे हैं। वर्तमान में गूगल सर्च में एक खरब से ज्यादा वेबसाइट सूचीबद्ध हैं और अगर एक पेज को देखने में एक मिनट भी लगता है तो सुलभ साइटों की संख्या आपको 31 हजार साल तक उलझाए रख सकती है।

निश्चिततः आधुनिक दौर में इण्टरनेट के बढ़ते प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाहे वह ई-गर्वनेंस हो या ई-काॅमर्स, ई-शाॅपिंग, ई-बिलिंग, ई-एजुकेशन, ई-मेडिकल या वीडियो काॅन्फ्रेन्सिंग हो, इण्टरनेट ने सब सरल और सुगम बना दिया है। पर आज जरूरत है कि इण्टरनेट पर किसी देश विशेष, भाषा विशेष या वर्ग विशेष के अधिकार की बजाय सभी के अधिकार की बात की जाय क्योंकि इण्टरनेट मात्र सूचना प्रौद्यौगिकी और व्यापार का औजार नहीं है बल्कि विकास का भी सक्षम औजार है। तभी सही अर्थांे में इण्टरनेट एक ऐसा ‘ग्लोबल विलेज’ बनाने में सक्षम होगा जो सभी की पहुँच के अन्दर है।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

हिन्दी पखवाड़ा



सरकारी विभागों में सितम्बर माह के प्रथम दिवस से ही हिन्दी पखवाड़ा मनाना आरम्भ हो जाता है और हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) आते-आते बहुत कुछ होता जाता है। ऐसी ही कुछ भावनाओं को इस कविता में व्यक्त किया गया है-

एक बार फिर से
हिन्दी पखवाड़ा का आगमन
पुराने बैनर और नेम प्लेटें
धो-पोंछकर चमकाये जाने लगे
बस साल बदल जाना था

फिर तलाश आरम्भ हुई
एक अदद अतिथि की
एक हिन्दी के विद्वान
एक बाबू के
पड़ोस में रहते थे
सो आसानी से तैयार हो गये
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनने हेतु

आते ही
फूलों का गुलदस्ता
और बंद पैक में भेंट
उन्होंने स्वीकारी
हिन्दी के राजभाषा बनने से लेकर
अपने योगदान तक की चर्चाकर डाली

मंच पर आसीन अधिकारियों ने
पिछले साल के
अपने भाषण में
कुछ काट-छाँट कर
फिर से
हिन्दी को बढ़ावा देने की शपथ ली
अगले दिन तमाम अखबारों में
समारोह की फोटो भी छपी

सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल
धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ायी
अधिकारी महोदय ने ज्यों ही
अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा
बाबू ने धीमे से टोका
अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं
और झल्लाकर बोले
तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा
कि हिन्दी पखवाड़ा बीत चुका है !!

शनिवार, 15 अगस्त 2009

समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को

स्वतंत्रता की गाथा सिर्फ अतीत भर नहीं है बल्कि आगामी पीढ़ियों हेतु यह कई सवाल भी छोड़ती है। वस्तुतः भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था, जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक-धार्मिक सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेज इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह‘ मात्र की संज्ञा देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह विद्रोह मात्र सरकार व सिपाहियों के बीच का अल्पकालीन संघर्ष था, न कि सरकार व जनता के बीच का संघर्ष। वस्तुतः इस प्रचार द्वारा उन्होंने भारत के कोने-कोने में पनप रही राष्ट्रीयता की भावना को दबाने का पूरा प्रयास किया। पर इसमें वे पूर्णतया कामयाब नहीं हुये और इस क्रान्ति की ज्वाला अनेक क्षेत्रों में एक साथ उठी, जिसने इसे अखिल भारतीय स्वरूप दे दिया। इस संग्राम का मूल रणक्षेत्र भले ही नर्मदा और गंगा के बीच का क्षेत्र रहा हो, पर इसकी गूँज दूर-दूर तक दक्षिण मराठा प्रदेश, दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों, गुजरात और राजस्थान के इलाकों और यहाँ तक कि पूर्वोत्तर भारत के खासी-जंैतिया और कछार तक में सुनाई दी। परिणामस्वरूप, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का यह प्रथम प्रयास पे्ररणास्रोत बन गया और ठीक 90 साल बाद भारत ने स्वाधीनता के कदम चूमकर एक नये इतिहास का आगाज किया।

भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि आजादी के दीवानों का लक्ष्य सिर्फ अंग्रजों की पराधीनता से मुक्ति पाना नहीं था, बल्कि वे आजादी को समग्र रूप में देखने के कायल थे। भारतीय पुनर्जागरण के जनक कहे जाने वाले राजाराममोहन राय से लेकर भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी और महात्मा गाँधी तक ने एक आदर्श को मूर्तरूप देने का प्रयास किया। राजाराममोहन राय ने सती प्रथा को खत्म करवाकर नारी मुक्ति की दिशा में पहला कदम रखा, ज्योतिबाफुले व ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने शैक्षणिक सुधार की दिशा में कदम उठाए, स्वामी विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती ने आध्यात्मिक चेतना का जागरण किया, दादाभाई नौरोजी ने गरीबी मिटाने व धन-निकासी की अंग्रेजी अवधारणाओं को सामने रखा, लाल-बाल-पाल ने राजनैतिक चेतना जगाकर आजादी को अधिकार रूप में हासिल करने की बात कही, वीर सावरकर ने 1857 की क्रान्ति को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में चिन्हित कर इसकी तुलना इटली में मैजिनी और गैरिबाल्डी के मुक्ति आन्दोलनों से व्यापक परिप्रेक्ष्य में की, भगत सिंह ने क्रान्ति को जनता के हित में स्वराज कहा और बताया कि इसका तात्पर्य केवल मालिकों की तब्दीली नहीं बल्कि नई व्यवस्था का जन्म है, महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह व अहिंसा द्वारा समग्र भारतीय समाज को जनान्दोलनों के माध्यम से एक सूत्र में जोड़कर अद्वैत का विश्व रूप दर्शन खड़ा किया, पं0 नेहरू ने वैज्ञानिक समाजवाद द्वारा विचारधाराओं में सन्तुलन साधने का प्रयास किया, डा0 अम्बेडकर ने स्वाधीनता को समाज में व्याप्त विषमता को खत्म कर दलितों के उद्धार से जोड़ा.........। इस आन्दोलन में जहाँ हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर लड़े, दलितों-आदिवासियों-किसानों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। तमाम नारियों ने समाज की परवाह न करते हुये परदे की ओट से बाहर आकर इस आन्दोलन में भागीदारी की।

स्वाधीनता का आन्दोलन सिर्फ इतिहास के लिखित पन्नों पर नहीं है, बल्कि लोक स्मृतियों में भी पूरे ठाठ-बाट के साथ जीवित है। तमाम साहित्यकारों व लोक गायकों ने जिस प्रकार से इस लोक स्मृति को जीवंत रखा है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है (भगत सिंह)। यह अनायास ही नहीं है कि अधिकतर नेतृत्वकर्ता और क्रान्तिकारी अच्छे विचारक, कवि, लेखक या साहित्यकार थे। तमाम रचनाधर्मियों ने इस ‘क्रान्ति यज्ञ’ में प्रेरक शक्ति का कार्य किया और स्वाधीनता आन्दोलन को एक नयी परिभाषा दी।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस बात की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के तमाम छुये-अनछुये पहलुओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये और औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को खत्म किया जाये। इतिहास के पन्नों में स्वाधीनता आन्दोलन के साक्षात्कार और इसके गहन विश्लेषण के बीच आत्मगौरव के साथ-साथ उससे जुड़े सबकों को भी याद रखना जरूरी है। राजनैतिक स्वतन्त्रता से परे सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी सच्चे अर्थों में हमारा ध्येय होना चाहिए। इसी क्रम में युवा पीढ़ी को राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास से रूबरू कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, पर उससे पहले इतिहास को पाठ्यपुस्तकों से निकालकर लोकाचार से जोड़ना होगा।

सोमवार, 10 अगस्त 2009

जन्मदिन का फंडा

ये जन्मदिन भी बड़ी अजीब चीज है। समझ में नहीं आता लोग जीवन के एक साल खत्म होने का जश्न मना रहे हैं या एक साल ठीक-ठाक कट जाने का। जब हम स्कूल के दिनों में थे तो साथियों को टाफियां बांटकर जन्म दिन मनाया करते थे। कई बार स्कूल की प्रातः सभा में यह ऐलान भी किया जाता कि आज फलां का जन्मदिन है। कई दोस्त तो सरप्राइज देने के लिए अपने हाथों से बना ग्रीटिंग कार्ड भी सामूहिक रूप से देते थे। जब हम नवोदय विद्यालय, आजमगढ़ में पढ़ते थे तो कुछ ऐसे ही बर्थडे मनाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आये तो बर्थडे का मतलब होता-किसी थियेटर में जाकर बढ़िया फिल्म देखना और शाम को मित्रों के साथ जमकर चिकन-करी खाना। हर मित्र इन्तजार करता कि कब किसी का बर्थडे आये और उसे बकरा बनाया जाय। बर्थडे केक जैसी चीजें तो एक औपचारिकता मात्र होती। ऐसे दोस्त-यार बड़ी काम की चीज होते, जिनकी कोई गर्लफ्रेन्ड होती। ऐसे लोग बर्थडे की शोभा बढ़ाने के लिए जरूर बुलाये जाते। वो बन्धुवर तो हफ्तेभर पहले से ही दोस्तों को समझाता कि यार ध्यान रखना अपनी गर्लफ्रेण्ड के साथ आ रहा हूँ। मेरी इज्जत का जनाजा न निकालना। कुछ भी हो उन बर्थडे का अपना अलग ही मजा था।


जब सरकारी सेवा में आया तो बर्थडे का मतलब भी बदलता गया। बर्थडे बकायदा एक त्यौहार हो गया और उसी के साथ नये-नये शगल भी पालते गये। बर्थडे केक, रंग-बिरंगे गुब्बारे, खूबसूरत और मंहगे गिफ्ट, किसी फाइव स्टार होटल का लजीज डिनर और इन सबके बीच सुन्दर परिधानों मे सजा हु व्यक्तित्व...कब जीवन का अंग बन गया, पता ही नहीं चला। पहले कभी किसी मित्र या रिश्तेदार का जन्मदिन पर भेजा हुआ ग्रीटिंग कार्ड मिलता था तो बड़ी आत्मीयता महसूस होती थी, पर अब तो सुबह से ही एस0एम0एस0, ई-मेल, आरकुटिंग स्क्रैप्स की बौछार आ जाती है। कई लोग तो एक ही मैसेज स्थाई रूप से सेव किये रहते हैं, और ज्यों ही किसी का बर्थडे आया उसे फारवर्ड कर दिया। कभी एक अदद गुलाब ही बर्थडे के लिए काफी था पर अब तो फूलों का पूरा गुच्छा अर्थात बुके का जमाना है। अगली सुबह जब इन बुके को देखिये तो उनका मुरझाया चेहरा देखकर पिछला दिन याद आता है कि कितनी दिल्लगी से ये हमारी सेवा में प्रस्तुत किये गये थे। तो चलिए इस बार इतना ही...मैं भी तैयार होता हूँ अपना बर्थडे सेलिब्रेट करने के लिए।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

लिंग समता के मायने

सृष्टि के आरम्भ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यह बात इस तथ्य से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि यदि नर व नारी दोनों में से कोई भी एक न हुआ होता तो सृष्टि की रचना ही सम्भव न थी। कुछेक अपवादों को छोड़कर विश्व में लगभग हर प्रकार के जीव-जन्तुओं में दोनों रूप नर-मादा विद्यमान हैं. समाज में यह किवदन्ती प्रचलित है कि भगवान भी अर्द्धनारीश्वर हैं अर्थात उनका आधा हिस्सा नर का है और दूसरा नारी का। यह एक तथ्य है कि पुरूष व नारी के बिना सृष्टि का अस्तित्व सम्भव नहीं, दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु इसके बावजूद भी पुरूष व नारी के बीच समाज विभिन्न रूपों में भेद-भाव करता है। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप “लिंग समता” अवधारणा का उद्भव हुआ अर्थात “लिंग के आधार पर भेदभाव या असमानता का अभाव”।

जैविक आधार पर देखें तो स्त्री-पुरूष की संरचना समान नहीं है। उनकी शारीरिक-मानसिक शक्ति में असमानता है तो बोलने के तरीके में भी । इन सब के चलते इन दोनों में और भी कई भेद दृष्टिगत होते हैं। इसी आधार पर कुछ विचारकों का मानना है कि -“स्त्री-पुरूष असमता का कारण सर्वथा जैविक है।” अरस्तू ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि - “स्त्रियाँ कुछ निश्चित गुणों के अभाव के कारण स्त्रियाँ हैं” तो संत थॉमस ने स्त्रियों को “अपूर्ण पुरूष” की संज्ञा दी। पर जैविक आधार मात्र को स्वीकार करके हम स्त्री के गरिमामय व्यक्तित्व की अवहेलना कर रहे हैं। प्रकृति द्वारा स्त्री-पुरूष की शारीरिक संरचना में भिन्नता का कारण इस सृष्टि को कायम रखना था । अतः शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से सबको समान बनाना कोरी कल्पना मात्र है। अगर हम स्त्रियों को इस पैमाने पर देखते हैं तो इस तथ्य की अवहेलना करना भी उचित नहीं होगा कि हर पुरूष भी शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि के आधार पर समान नहीं होता। अतः इस सच्चाई को स्वीकार करके चलना पडे़गा कि जैविक दृष्टि से इस जगत में भेद व्याप्त है और इस अर्थ में लिंग भेद समाप्त नहीं किया जा सकता।

इसमें कोई शक नहीं कि लिंग-समता को बौद्धिक स्तर पर कोई भी खण्डित नहीं कर सकता। नर-नारी सृष्टि रूपी परिवार के दो पहिये हैं। तमाम देशों ने संविधान के माध्यम से इसे आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है पर जरूरत है कि नारी अपने हकों हेतु स्वयं आगे आये। मात्र नारी आन्दोलनों द्वारा पुरुषों के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण व्यक्त करने से कुछ नहीं होगा। पुरूषों को भी यह धारणा त्यागनी होगी कि नारी को बराबरी का अधिकार दे दिया गया तो हमारा वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। उन्हें यह समझना होगा कि यदि नारियाँ बराबर की भागीदार बनीं तो उन पर पड़ने वाले तमाम अतिरिक्त बोझ समाप्त हो जायेंगे और वे तनावमुक्त होकर जी सकेंगे। यह नर-नारी समता का एक सुसंगत एवं आदर्श रूप होगा ।

बुधवार, 29 जुलाई 2009

झूठ पकड़ने वाली मशीन : पालीग्राफ

आजकल ‘सच का सामना‘ सीरियल चर्चा में है। इसे पश्चिमी देशों की नकल के रूप में देखा जा रहा है। बताते हैं कि 1950 में राल्फ एंड्रयूज ने पहला पालीग्राफ टीवी शो ‘लाइ डिटेक्टर‘ नाम से बनाया था। फिलहाल ‘सच का सामना‘ सीरियल को लेकर तमाम विवाद सड़क से संसद तक गूँज रहे हैं। मानवीय मन की सच्चाई को पकड़ने के लिए इस सीरियल में पालीग्राफ का इस्तेमाल किया जा रहा है। गौरतबल है कि पालीग्राफ टेस्ट का प्रयोग सामान्यतया अपराधियों से सच उगलवाने के लिए किया जाता है। इसमें जब किसी व्यक्ति से प्रश्न पूछा जाता है तो व्यक्ति के ब्लड प्रेशर, धड़कनों, शरीर के तापमान, साँस की गति और त्वचा की चालकता के आधार पर जवाब का मापन किया जाता है। पालीग्राफ टेस्ट के लिए मुख्यतः कम्प्यूटराइज्ड और एनालाॅग तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। पालीग्राफ टेस्ट के आरम्भ में किसी व्यक्ति की प्रारंभिक जानकारी एकत्रित की जाती है। उसके बाद टेस्टर इस बात की जानकारी देता है कि पालीग्राफ कैसे काम करता है और यह झूठ कैसे पकड़ता है। संक्षिप्त में कहें तो पालीग्राफ एक ऐसा आधुनिक संयंत्र है जो मनोवैज्ञानिक जवाबों को रिकार्ड करता है। प्रश्न पूछने के दौरान पालीग्राफ टेस्ट ‘सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम‘ के कारण हुए मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को परखता है।

पालीग्राफ के जन्म की अपनी कहानी है। वर्ष 1885 में सीजर लोंब्रोसो ने पुलिस के विभिन्न मामलों में ब्लडप्रेशर को मापने के लिए लाइ-डिटेक्शन पद्यति का प्रयोग किया था। इसके लगभग 29 साल बाद 1914 में विटोरियों बेनुसी ने साँस की गति के आधार पर झूठ पकड़ने वाली एक मशीन का निर्माण किया था। कालान्तर में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा0 जान.ए. लार्सन ने ऐसी मशीन बनाई, जो ब्लड प्रेशर और त्वचा के आधार पर झूठ का मापन करती थी। इन तमाम प्रयोगों के बीच ही वर्तमान रूप में पालीग्राफ मशीन अस्तित्व में आई। यद्यपि पाॅलीग्राफ टेस्ट का प्रयोग अक्सर विवादों में रहा है फिर भी अमेरिका, यूरोप, कनाडा, आस्ट्रेलिया, इजराइल और भारत में पालीग्राफ टेस्ट को मान्यता दी गई है।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ ...विजयी विश्व तिरंगा प्यारा

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा.... का उद्घोष हमने कई बार किया होगा। पर बहुत कम लोगों को पता होगा कि केसरिया, सफेद और हरे रंग के इस तिरंगे को 22 जुलाई 1947 को घोषित रूप से राष्ट्रीय ध्वज का स्वरूप मिला। आज इस तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ है। गौरतलब है कि 7 अगस्त 1906 को कोलकाता के ग्रीन पार्क में राष्ट्रवादियों द्वारा पहला भारतीय ध्वज फहराया गया था। इस ध्वज में क्रमशः पीली, लाल तथा हरे रंग की ऊपर से नीचे की ओर लंबी-लंबी पट्टियां थीं। ऊपर की पीली पट्टी पर आठ कमल बने थे। अगले ही वर्ष 1907 में मेडम कामा ने एक ध्वज फहराया जिसका आकार व रंगों की पट्टी तो कलकत्ता में फहराये गये ध्वज जैसी ही थीं परंतु ऊपर की पीली पट्टी पर कमल के स्थान पर सात तारे बने थे। वस्तुतः मैडम कामा आर्य समाजी थीं और उन्होंने इन तारों में सप्त ऋषियों की कल्पना की थी। इसके चार साल बाद 1911 में बर्लिन में हुए साम्यवादियों के सम्मेलन में तीसरा भारतीय ध्वज फहराया गया। यह ध्वज मैडम कामा के ध्वज की ही तरह था। चौथा ध्वज 1917 में पंजाब में एनीबेसेंट और लोकमान्य तिलक ने फहराया। इस ध्वज में पांच लाल पट्टियां थीं। सबसे ऊपर वाली पट्टी में सात तारे बने थे। इस ध्वज में खास बात यह थी कि ध्वज के स्तभ की ओर वाले हिस्से में किनारे एक छोटा सा ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक बना था और लहराने वाले हिस्से में किनारे अर्द्ध चंद्र में तारा बना था।



तत्पश्चात 1921 में विजयवाड़ा (आन्ध्र प्रदेश) के कांग्रेस सम्मेलन में एक चुवक ने ध्वज फहराया जिसमें लाल, सफेद व हरी पट्टियां थीं। गांधी जी को यह झंडा पसंद आया तो उन्होंने सफेद पट्टी पर चरखा बनाने को कहा। अधिवेशन के अंत में यही चरखा वाला झंडा फहराया गया। धीरे-धीरे लाल रंग केसरिया में तब्दील हो गया और यही झंडा 1921 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में फहराया गया। बाद में एक प्रस्ताव पारित कर इस ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज की संज्ञा दी गयी। 22 जुलाई 1947 को वरिष्ठ विचारक पिंगली वेंकैयानंद ने वर्तमान राष्ट्रध्वज की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए प्रस्ताव रखा कि ध्वज में चरखे के स्थान पर प्रगति के प्रतीक सम्राट अशोक का धर्मचक्र रखा जाये। इसे स्वीकार कर लिया गया। तभी से तिरंगा राष्ट्रध्वज शान और आन बान से लहरा रहा है। इसी समय इसके निर्माण के लिए मानक भी तय हुए कि ध्वज निश्चित तरह के धागे से बने खादी के कपड़े से ही तैयार किये जाते हैं। चार कोने वाल आयताकार ध्वज अलग-अलग नाम के हो सकते हैं परन्तु उनकी चैड़ाई एंव लम्बाई में अनुपाल क्रमशः 4 गुना 6 ही रहेगा। इन्हीं विशिष्टताओं के मद्देनजर राष्ट्रीय ध्वज बनाने की जिम्मेदारी खादी कमीशन मुम्बई एवं धारवाड़ तालुका गैराज क्षत्रीय सेवा संघ गुजरात जैसी कुछ ही संस्थाओं को दी गई है। आज तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ पर तिरंगे के प्रति सम्मान और समर्पण के ये शब्द याद आते हैं-‘कौमी तिरंगा झंडा ऊंचा रहे जहां में, हो तेरी सर बुलंदी चांद-आसमां में'' !!