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बुधवार, 25 मार्च 2009

गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ (पुण्य तिथि-२५ मार्च पर)

साहित्य की सदैव से समाज में प्रमुख भूमिका रही है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं, वहीं लोगों में बखूबी जन जागरण का कार्य भी करती थीं। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ साहित्य और पत्रकारिता के ऐसे ही शीर्ष स्तम्भ थे, जिनके अखबार ‘प्रताप‘ ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। प्रताप के जरिये न जाने कितने क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलन से रूबरू हुए, वहीं समय-समय पर यह अखबार क्रान्तिकारियों हेतु सुरक्षा की ढाल भी बना।


गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अपने ननिहाल अतरसुइया, इलाहाबाद में हुआ था। उनके नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव सहायक जेलर थे, अतः अनुशासन उन्हें विरासत में मिला। गणेश शंकर के नामकरण के पीछे भी एक रोचक वाकया है- उनकी नानी ने सपने में अपनी पुत्री गोमती देवी के हाथ गणेश जी की प्रतिमा दी थी, तभी से उन्होंने यह माना था कि यदि गोमती देवी का कोई पुत्र होगा तो उसका नामकरण गणेश शंकर किया जायेगा। मूलतः फतेहपुर जनपद के हथगाँव क्षेत्र के निवासी गणेश शंकर के पिता मुंशी जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर राज्य में मुंगावली नामक स्थान पर अध्यापक थे। गणेश शंकर आरम्भ से ही किताबें पढ़ने के काफी शौकीन थे, इसी कारण मित्रगण उन्हें ‘विद्यार्थी‘ कहते थे। बाद में उन्होंने यह उपनाम अपने नाम के साथ लिखना आरम्भ कर दिया। विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पिता जी के स्कूल मुंगावली, जहाँ वे एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में अध्यापक थे, में हुई। विद्यार्थी जी उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। 1904 में उन्होंने भलेसा से अंग्रेजी मिडिल की परीक्षा पास किया, जिसमें पहली बार हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में मिली थी। तत्पश्चात पिताजी ने विद्यार्थी जी को पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने के लिए बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास कानपुर भेज दिया। कानपुर में आकर विद्यार्थी जी ने क्राइस्ट चर्च कालेज की प्रवेश परीक्षा दी पर भाई का तबादला मुंगावली हो जाने से आगे की पढ़ाई फिर वहीं हुई। वर्ष 1907 में विद्यार्थी जी आगे की पढ़ाई के लिए कायस्थ पाठशाला गये। इलाहाबाद प्रवास के दौरान विद्यार्थी जी की मुलाकात ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक के सम्पादक सुन्दर लाल से हुई एवं इसी दौरान वे उर्दू पत्र ‘स्वराज्य‘ के संपर्क में भी आये। गौरतलब है कि अपनी क्रान्तिधर्मिता के चलते ‘स्वराज्य‘ पत्र के आठ सम्पादकों को सजा दी गई थी, जिनमें से तीन को कालापानी की सजा मुकर्रर हुई थी। सुन्दरलाल उस दौर के प्रतिष्ठित संपादकों में से थे। लोकमान्य तिलक को इलाहाबाद बुलाने के जुर्म में उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया था एवं इसी कारण उनकी पढ़ाई भी भंग हो गई थी। सुन्दरलाल के संपर्क में आकर विद्यार्थी जी ने ‘स्वराज्य‘ एवं ‘कर्मयोगी‘ के लिए लिखना आरम्भ किया। यहीं से पत्रकारिता एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ती गई।


इलाहाबाद से गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ कानपुर आये एवं इसे अपनी कर्मस्थली बनाया। कानपुर में कलकत्ता से अरविंद घोष द्वारा सम्पादित ‘वन्देमातरम्‘ ने विद्यार्थी जी को आकृष्ट किया एवं इसी दौरान उनकी मुलाकात पं0 पृथ्वीनाथ मिडिल स्कूल के अध्यापक नारायण प्रसाद अरोड़ा से हुई। अरोड़ा जी की सिफारिश पर विद्यार्थी जी को उसी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। पर पत्रकारिता की ओर मन से प्रवृत्त विद्यार्थी जी का मन यहाँ भी नहीं लगा और नौकरी अन्ततः छोड़ दी। उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी कानपुर में ही रहकर ‘सरस्वती‘ का सम्पादन कर रहे थे। विद्यार्थी जी इस पत्र से भी सहयोगी रूप में जुड़े रहे। एक तरफ पराधीनता का दौर, उस पर से अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार ने विद्यार्थी जी को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने पत्रकारिता को राजनैतिक चेतना को जोड़कर कार्य करना आरम्भ किया। इसी दौरान वे इलाहाबाद लौटकर वहाँ से प्रकाशित साप्ताहिक ‘अभ्युदय‘ के सहायक संपादक भी रहे। पर विद्यार्थी जी का मनोमस्तिष्क तो कानपुर में बस चुका था, अतः वे पुनः कानपुर लौट आये। कानपुर में विद्यार्थी जी ने 1913 से साप्ताहिक ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया प्राण फूँका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो सारी हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। प्रताप प्रेस में कम्पोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था एवं उसके ऊपर टाइप के अक्षर। ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का सामान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी पुलिस को ये चीजें हाथ नहीं लगीं। विद्यार्थी जी को 1921-1931 तक पाँच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः ‘प्रताप‘ में प्रकाशित किसी समाचार के कारण ही होता था। विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चैरी-चैरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से प्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ प्रताप अखबार में ही मई 1922 में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।


विद्यार्थी जी एक पत्रकार के साथ-साथ क्रान्तिधर्मी भी थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने काकोरी षडयंत्र केस के अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी करवायी और जेल में क्रान्तिकारियों का अनशन तुड़वाया। कानपुर को क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाने में विद्यार्थी जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, राजकुमार सिन्हा जैसे तमाम क्रान्तिकारी विद्यार्थी जी से प्रेरणा पाते रहे। वस्तुतः प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र से भागे सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं0 राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। सर्वप्रथम दरियागंज, दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए भगत सिंह ने दिल्ली की यात्रा की और लौटकर ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भंेट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। जरूरत पड़ने पर विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया। यही नहीं अशफाकउल्ला खान की कब्र भी विद्यार्थी जी ने ही बनवाई।


विद्यार्थी जी का ‘प्रताप‘ तमाम महापुरूषों को भी आकृष्ट करता था। 1916 में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे। 1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान विद्यार्थी जी स्वागत मंत्री रहे और जवाहर लाल नेहरू के साथ-साथ घोड़े पर चढ़कर अधिवेशन स्थल का भ्रमण करते थे। यह विद्यार्थी जी ही थे जिन्होंने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद‘ को प्रताप प्रेस में रखा एवं उनके गान ‘राष्ट्र पताका नमो-नमो‘ को ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘ में तब्दील कर दिया। विद्यार्थी जी सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे। एक बार जब ग्वालियर नरेश ने उन्हें सम्मानित किया और कहा कि मुझे खुशी है कि आपके पिताजी मेरे अंतर्गत मुंगावली में कार्यरत रहे हैं, परन्तु आप मेरे बारे में अपने अखबार में लगातार विरोधी खबरें छाप रहे हैं। तो विद्यार्थी जी ने निडरता से कहा कि मैं आपका और पिताजी के आपसे सम्बन्धों का सम्मान करता हूँ, परन्तु इसके चलते अखबार के साथ अन्याय नहीं कर सकता। हाँ, यदि आप इन खबरों का प्रतिवाद लिखकर भेजेंगे तो अवश्य प्रकाशित करूँगा।


कालान्तर में विद्यार्थी जी गाँधीवादी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए एवं यह उनकी लोकप्रियता का भी सबब बना। वे क्रान्तिकारियों एवं गाँधीवादी विचारधारा के अनुयायियों के लिए समान रूप से प्रिय थे। इस बीच अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया तो भारतीय जनमानस आगबबूला हो उठा। अंगे्रजी निर्दयता के विरूद्ध जनमानस सड़कों पर उतर आया। निडर एवं साहसी व्यक्तित्व के धनी तथा साम्प्रदायिकता विरोधी विद्यार्थी जी इस दौरान भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शान्त कराने के लिए लोगों के बीच उतर पड़े। उधर विद्यार्थी जी के प्रताप से अंग्रेजी हुकूमत भी भयभीत थी। रायबरेली में मुंशीगंज गोली काण्ड के तहत ‘प्रताप‘ पर मानहानि का केस चल रहा था और अंग्रेज बार-बार यह संदेश दे रहे थे कि जब तक कानपुर में ‘प्रताप‘ जीवित है, तब तक प्रदेश में शान्ति स्थापना मुश्किल है। भड़की हिंसा को काबू करने के दौरान 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अन्तिम संस्कार कर दिया गया पर ‘प्रताप‘ के माध्यम से ‘विद्यार्थी‘ जी ने राजनैतिक आन्दोलन, क्रान्तिकारी चेतना, क्रान्तिधर्मी पत्रकारिता एवं साहित्य को जो ऊँचाईयाँ दीं, उसने उन्हें अमर कर दिया एवं इसकी आंच में ही अन्ततः स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित हुई।

शनिवार, 21 मार्च 2009

कानपुर से अटूट सम्बन्ध रहा बिस्मिल्लाह खाँ का (जन्मतिथि 21 मार्च पर विशेष)

शहनाई वादन को विवाह-मंडप, मंदिर और मंगल मौकों से इतर शास्त्रीय संगीत के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ (21 मार्च 1916-21 अगस्त 2006) का कानपुर से अटूट संबंध रहा। शहनाई के शहंशाह माने जाने वाले भारतरत्न बिस्मिल्लाह खाँ साहब का मानना था कि उनका गंगा से नजदीकी रिश्ता है और चूँकि कानपुर भी गंगा के तट पर है अतः यहाँ भी उन्हें वही खुशबू नजर आती है। पाँच वक्त के नमाजी खाँ साहब गंगा-यमुना तहजीब की जीती-जागती मिसाल थे। मंदिरों में रियाज कर अपने फन को मूर्त रूप देने वाले बिस्मिल्लाह खाँ धर्मनिरपेक्षता के साक्षात् उदाहरण थे। अपनी शहनाई से निकले ठुमरी और कजरी के अनमोल बोलांे से उन्होंने शहनाई को शांति और माधुर्य का माध्यम बना दिया। उनके लिए संगीत और खुदा की इबादत एक दूसरे के पर्यायवाची थे।

बिस्मिल्लाह खाँ ने कानपुर की जमीं पर कई बार अपनी शहनाई की रंगत दिखायी। पाँच दशक पूर्व खाँ साहब सर्वप्रथम कानपुर के लालाराम रतन गुप्ता के यहाँ एक वैवाहिक कार्यक्रम में शहनाई बजाने आए थे। ऐसे समय में जबकि बड़े घरानों के वैवाहिक कार्यक्रम ही चर्चित हो पाते थे, खाँ साहब की शहनाई ने इस कार्यक्रम को अपनी कला की बदौलत शोहरत दे दी और बारातियों से ज्यादा उनकी शहनाई की धुन सुनने वालों की भीड थी। सन् 1974 में श्री कृष्ण पहलवान समिति द्वारा मोती झील में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में खाँ साहब पुनः कानपुर पधारे और अपनी शमा छोड़ गए। इसके कुछ ही साल बाद कानपुर में नवरात्र की अष्टमी अवसर पर आयोजित संगीत संध्या में एक बार फिर से खाँ साहब ने अपनी शहनाई से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। करीब 27 वर्ष पूर्व लाजपत भवन में हिन्दी दैनिक ‘आज’ द्वारा आयोजित पावस कार्यक्रम में बिस्मिल्लाह खाँ ने शहनाई की जो धुनें छेड़ीं, उस पर श्रोताओं ने एक बार और की फरमाईशों द्वारा खाँ साहब को अपने असली रूप में आने को मजबूर कर दिया। फिर क्या था, खिलौना फिल्म के गाने ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’, जिसे उन्होंने ही संगीतबद्ध किया था के तराने खाँ साहब की शहनाई से मदमस्त होकर गुंज उठी। 1987 में एक बार पुनः खाँ साहब नाद ब्रह्मन संगीत संस्था के संचालक एम0 बर्द्धराजन के बुलावे पर कानपुर आये और भीमसेन जोशी के साथ ‘नाद ब्रह्मन’ कार्यक्रम का उद्घाटन किया। यहाँ उन्होंने राग ‘यमन कल्याण’ बजाकर सभी को भावाविभोर कर दिया। लगभग 17 वर्ष पूर्व बिस्मिल्लाह खाँ दुनिया के प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थान आई0आई0टी0 कानपुर में भी शहनाई वादन के लिए आए और अपनी वादन तकनीक व कला से यहाँ देश-विदेश से पधारे तमाम प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व इंजीनियरों को अपनी सुर-साधना तकनीक का कायल बना दिया।

अंतिम बार बिस्मिल्लाह खाँ 1992 में कानपुर पधारे और इसी वर्ष आरम्भ ‘बिठूर महोत्सव‘ का आगाज अपने शहनाई वादन से किया। इसी कार्यक्रम के दौरान बी0 डी0 जोग के वायलिन के साथ उनकी शहनाई की अनुपम जुगलबंदी ने कानपुरवासियों को सम्मोहित कर दिया। उस दौरान अयोध्या में राम मंदिर व बाबरी मस्जिद का विवाद चरम पर था। ऐसे माहौल में खाँ साहब ने भावुक होते हुए कहा कि-‘‘अगर हिन्दू-मुसलमानों के बीच किसी समझौते से अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण हुआ तो वहाँ भी वह बैठ कर शहनाई बजाकर खुद को निहाल करेंगे।’’ उनके इस भावकुतापूर्ण व निश्छल शब्दों से गंगा तट का किनारा तालियों की गड़गड़हट से इस प्रकार गूंज उठा मानों एक साथ मंदिरों की घंटियाँ अपने आप ही बज उठी हों एवं पाश्र्व में नमाज के बोल उठ रहे हों। उस दिन बिस्मिल्लाह खाँ का फन पूरे शवाब पर था और एक बार फिर उन्होंने गंगा के बहाने कानपुर से अपना रिश्ता जाहिर किया। और कहा कि- ‘‘यदि उन्होंने यहाँ बिठूर में गंगा तट पर शहनाई नहीं बजायी होती तो उनकी संगीत की इबादत अधूरी रह जाती।‘‘

आज बिस्मिल्लाह खाँ हमारे बीच भौतिक रूप से नहीं रहे पर उनकी शहनाई की गूंज अभी भी हमारे जेहन में है। 14 अगस्त 1947 को मध्य रात्रि में भारत के नवप्रभात का स्वागत करते हुए खाँ साहब ने लाल किले की प्राचीर से शहनाई वादन किया था और उनकी दिली इच्छा अंतिम बार इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की थी, पर आतंकवाद के चलते वह भी अधूरी रह गयी। उनकी महानता, विनम्रता व सदाशयता को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा यह प्रयास किया कि दिग्गजों के साथ-साथ वह उभरते कलाकारों के साथ भी बैठें। संसद में उभरती कलाकार डाॅ0 सोमाघोष के साथ जुगलबंदी पर उन्होंने कहा था कि-‘‘अगर मेरे साथ बैठने से कोई आगे बढ़ता है, तो मुझे खुशी होगी। मैं तो एक भिखारिन के साथ भी बैठने को तैयार हूँ बशर्ते कि उसमें कण्ठरस हो।’’

- कृष्ण कुमार यादव

मंगलवार, 10 मार्च 2009

भारतीय संस्कृति में होली के विभिन्न रंग

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। शायद यही कारण है कि एक समय किसी धर्म विशेष के त्यौहार माने जाने वाले पर्व आज सभी धर्मों के लोग आदर के साथ हँसी-खुशी मनाते हैं।

होली भारतीय समाज का एक प्रमुख त्यौहार है, जिसका लोग बेसब्री के साथ इंतजार करते हैं। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग रूपों में होली मनाई जाती है। रबी की फसल की कटाई के बाद वसन्त पर्व में मादकता के अनुभवों के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व उत्साह और उल्लास का परिचायक है। अबीर-गुलाल व रंगों के बीच भांग की मस्ती में फगुआ गाते इस दिन क्या बूढे़ व क्या बच्चे, सब एक ही रंग में रंगे नजर आते हैं। नारद पुराण के अनुसार दैत्य राज हिरणकश्यप को यह घमंड था कि उससे सर्वश्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं, अतः लोगों को ईश्वर की पूजा करने की बजाय उसकी पूजा करनी चाहिए। पर उसका बेटा प्रहलाद जो कि विष्णु भक्त था, ने हिरणकश्यप की इच्छा के विरूद्ध ईश्वर की पूजा जारी रखी। हिरणकश्यप ने प्रहलाद को प्रताड़ित करने हेतु कभी उसे ऊंचे पहाड़ों से गिरवा दिया, कभी जंगली जानवरों से भरे वन में अकेला छोड़ दिया पर प्रहलाद की ईश्वरीय आस्था टस से मस न हुयी और हर बार वह ईश्वर की कृपा से सुरक्षित बच निकला। अंततः हिरणकश्यप ने अपनी बहन होलिका जिसके पास एक जादुई चुनरी थी, जिसे ओढ़ने के बाद अग्नि में भस्म न होने का वरदान प्राप्त था, की गोद में प्रहलाद को चिता में बिठा दिया ताकि प्रहलाद भस्म हो जाय। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था, ईश्वरीय वरदान के गलत प्रयोग के चलते जादुई चुनरी ने उड़कर प्रहलाद को ढक लिया और होलिका जल कर राख हो गयी और प्रहलाद एक बार फिर ईश्वरीय कृपा से सकुशल बच निकला। दुष्ट होलिका की मृत्यु से प्रसन्न नगरवासियांे ने उसकी राख को उड़ा-उड़ा कर खुशी का इजहार किया। मान्यता है कि आधुनिक होलिकादहन और उसके बाद अबीर-गुलाल को उड़ाकर खेले जाने वाली होली इसी पौराणिक घटना का स्मृति प्रतीक है।

भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सर्दी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंततः भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी। धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं।

होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही कही जायेगी। कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुल्क नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सखागण मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं। बरसाना की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसी प्रकार बनारस की होली का भी अपना अलग अन्दाज है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा गया है। यहाँ होली को रंगभरी एकादशी के रूप में मनाते हैं और बाबा विश्वनाथ के विशिष्ट श्रृंगार के बीच भक्त भांग व बूटी का आन्नद लेते हैं।

होली को लेकर देश के विभिन्न अंचलों में तमाम मान्यतायें हैं और शायद यही विविधता में एकता की भारतीय संस्कृति का परिचायक भी है। उत्तर पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस से जोड़कर पूतना दहन के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था और उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न हो देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत र्में अिग्न प्रज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है। मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में अवस्थित धूंधड़का गाँव में होली तो बिना रंगों के खेली जाती है और होलिकादहन के दूसरे दिन ग्रामवासी अमल कंसूबा (अफीम का पानी) को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं और सभी ग्रामीण मिलकर उन घरों में जाते हैं जहाँ बीते वर्ष में परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो चुकी होती है। उस परिवार को सांत्वना देने के साथ होली की खुशी में शामिल किया जाता है।

कानपुर में होली का अपना अलग ही इतिहास है। यहाँ अवस्थित जाजमऊ और उससे लगे बारह गाँवों में पाँच दिन बाद होली खेली जाती है। बताया जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक की हुकुमत के दौरान ईरान के शहर जंजान के शहर काजी सिराजुद्दीन के शिष्यों के जाजमऊ पहुँचने पर तत्कालीन राजा ने उन्हें जाजमऊ छोड़ने का हुक्म दिया तो दोनो पक्षों में जंग आरम्भ हो गई। इसी जंग के बीच राजा जाज का किला पलट गया और किले के लोग मारे गये। संयोग से उस दिन होली थी पर इस दुखद घटना के चलते नगरवासियों ने निर्णय लिया कि वे पाँचवें दिन होली खेलेंगे, तभी से यहाँ होली के पाँचवें दिन पंचमी का मेला लगता है। इसी प्रकार वर्ष 1923 के दौरान होली मेले के आयोजन को लेकर कानपुर के हटिया में चन्द बुद्धिजीवियों व्यापारियों और साहित्यकारों (गुलाबचन्द्र सेठ, जागेश्वर त्रिवेदी, पं0 मंुशीराम शर्मा ‘सोम’, रघुबर दयाल, बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’, बुद्धूलाल मेहरोत्रा और हामिद खाँ) की एक बैठक हो रही थी। तभी पुलिस ने इन आठों लोगों को हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफतार करके सरसैया घाट स्थित जिला कारागार में बन्द कर दिया। इनकी गिरतारी का कानपुर की जनता ने भरपूर विरोध किया। आठ दिनों पश्चात् जब उन्हें रिहा किया गया, तो उस समय ‘अनुराधा-नक्षत्र’ लगा हुआ था। जैसे ही इनके रिहा होने की खबर लोगों तक पहुँची, लोग कारागार के फाटक पर पहुँच गये। उस दिन वहीं पर मारे खुशी के पवित्र गंगा जल में स्नान करके अबीर-गुलाल और रंगों की होली खेली। देखते ही देखते गंगा तट पर मेला सा लग गया। तभी से परम्परा है कि होली से अनुराधा नक्षत्र तक कानपुर में होली की मस्ती छायी रहती है और आठवें दिन प्रतिवर्ष गंगा तट पर गंगा मेले का आयोजन किया जाता है।

पग-पग पर बदले बोली, पग-पग पर बदले भेष, वाले भारतवर्ष में होली का त्यौहार धूम-धाम से विभिन्न रंगों में मनाया जाता है। भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माॅल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आॅफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुई हैंैं पर अंततः इस पर्व का उद््देश्य मानव-कल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से-कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है। नए वó, नया श्रृंगार और लज़ीज़ पकवानों के बीच होली पर्व मनाने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी गिनाया जाता है कि यह पर्व के बहाने समाज एवं व्यक्तियों के अन्दर से कुप्रवृत्तियों एवं गन्दगी को बाहर निकालने का माध्यम है। होली पर खेले गए रंग गन्दगी के नहीं बल्कि इस विचार के प्रतीक हंै कि इन रंगोें के धुलने के साथ-साथ व्यक्ति अपने राग-द्वेष भी धुल दे। यही कारण है कि रंगों को धुलने के बाद लोग मस्ती में फगुआ गाते हंै और एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर भाईचारे का प्रदर्शन करते हैं। वर्तमान परिवेश में जरुरत है कि इस पवित्र त्यौहार पर आडम्बरता की बजाय इसके पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।

शनिवार, 7 मार्च 2009

21वीं सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की पूर्व संध्या पर)

भारत में नारी को पूजनीय माना गया है। वैदिक काल से ही नारी विभिन्न रूपों में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करती आ रही है। नारी की सुकोमलता, सौंदर्य, लज्जा व स्नेहिल स्वभाव सदैव से इसके आभूषण रहे हैं पर दुर्भाग्यवश इन्हीं गुणों के कारण उसके साथ बार-बार छल भी हुआ है। समाज की सामन्तवादी सोच ने नारी की आन्तरिकता की उपेक्षा कर उसकी भौतिक काया एवं बाहरी रूप-रंग को ही आधार बनाया । आज जहाँ पुरूष की शुचिता उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर मापी जाती है, वहीं नारी की शुचिता अंग विशेष के आधार पर मापी जाती है।

प्राचीन काल से ही जहाँ नारी को एक तरफ समाज में प्रतिष्ठा मिली, वहीं दूसरी तरफ वह बर्बरता का शिकार हुयी । तुलसीदास ने तो नारी को ताड़ना का अधिकारी बताकर पशु के समकक्ष खड़ा कर दिया- ‘‘ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’’ मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने पत्नी सीता के अग्निपरीक्षा में खरे उतरने के बाद भी एक धोबी के कहने पर धोखे से अपनी पत्नी को घर से निर्वासित कर दिया । सती-प्रथा की आड़ में तमाम नवयुवतियों को मृत पति के साथ चिता में जिन्दा भस्म कर दिया गया । तमाम राजाओं की हैवानियत तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक वे पराजित राजाओं की रानियों को अपने हरम का हिस्सा नहीं बना लेते थे। जौहर-प्रथा इसी का नतीजा थी । यह सब तो बीते युग की बातें हैं, वर्तमान दौर में भी इस तरह की व्यथायें देखी और सुनी जा सकती हैं। बिहार से मुसहर जाति की एक सांसद को टी0 टी0 ने ट्रेन के वातानुकूलित कोच से परिचय देने के बावजूद इसलिये बाहर निकाल दिया क्योंकि वह वेश-भूषा से वातानुकूलित कोच में बैठने लायक नहीं लगती थीं। याद कीजिये दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों द्वारा गाँधी जी को टेªन के प्रथम श्रेणी डिब्बे से बाहर निकालने का दृश्य। राजस्थान में ‘साथिन’ नामक संस्था से जुड़ी भँवरी देवी ने जन-जागरूकता का बीड़ा उठाया तो हश्र्र बलात्कार के रूप में सामने आया। देवदासी प्रथा के नाम पर कुंवारी कन्या को भगवान के दरबार में सौंप देना और तत्पश्चात मन्दिर के पुरोहित द्वारा कन्या के साथ संभोग करना जैसी घटनायें भी कुछेक देशों में देखी जा सकती हैं। पंचायत संस्थाओं में निम्न वर्ग की महिलाओं को आरक्षण मिलने के साथ ही देश के कई क्षेत्रों में निर्वाचित सरपंचों के साथ बद्सलूकी की घटनायें अखबारों की सुर्खियाँ बनी । मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में हुआ ‘सती काण्ड’ अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है । इक्कीसवीं सदी की ओर उन्मुख राष्ट्र की गर्वोक्ति घोषणाओं के साथ ही अखबारों में नित्य नाबालिगों के साथ दुष्कर्म की घटनायें छपती रहती हैं। मुम्बई की लोकल टेªन में एक वहशी द्वारा पाँच-छः यात्रियों के सामने एक बालिका से बलात्कार करना और उन यात्रियों का चुप-चाप तमाशा देखना क्या इंगित करता है ? सभ्य समाज का दर्जा पा चुकने के बाद भी घर की महिलाओं से बलात्कार कर बदला चुकाने का पाशविक अंदाज नहीं बदला है। विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र एवम् लोकतन्त्र व सभ्यता के स्वयंभू रक्षक अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अपने कार्यालय की एक अदना सी महिला कर्मचारी मोनिका लेविंस्की के साथ अंतरंग क्षणों का लोभ नहीं छोड़ सके। एक सभ्य समाज की ये असभ्य घटनायें हमें कहाँ लेे जा रही हैं ?

आधुनिक समाज संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है। आाधुनिकता के नाम पर सफलता हेतु शार्टकट रास्ते अपनाना, स्वतन्त्रता के नाम पर उन्मुक्तता का पक्ष- पोषण करना इसकी विशेषतायें बन चुकी हैं । ‘आई डोन्ट केयर’ की संस्कृति फलने-फूलने लगी है। शारीरिक वर्जनायें खत्म होती जा रही हैं । गली- मुहल्लों में तेजी से बढ़ता सौन्दर्य का बाजार, ब्यूटी-क्वीन प्रतियोगिताओं की भरमार, कुछ ही समय में सब कुछ पा लाने की महत्वाकांक्षा, विज्ञापन के नाम पर नारी माॅंडलों के शरीर का प्रदर्शन, फिल्मों और धारावाहिकों में रिश्तों के तेजी से टूटने का प्रचलन एवम् कम होते कपड़े किस आाधुनिकता व स्वतंत्रता के परिचायक हैं? क्या भारतीय संस्कृति अपनी मूल आस्थाओं को छोड़कर उस पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उन्मुख हो रही है, जहाँ बात-बात में नारी स्वतन्त्रता के नाम पर छाती उधाड़ देना फैशन बन गया है?

इस संक्रमण काल के बीच 21वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में एक ऐसा वर्ग उभरा जो अपनी मुक्ति शारीरिक वर्जनाओं को तोड़ने में नहीं अपितु खोखली सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ने में देखता है। इनकी शक्लो-सूरत ओर हैसियत पर मत जाईये। ये न तो फेमिनिस्ट के रूप में नारी आन्दोलनों से जुड़ी हैं और न पश्चिमी देशों की उन नारियों की तरह है जो स्वतंत्रता के नाम पर अपनी छाती उघाड़कर प्रदर्शन करती हैं। न ही इनके साथ किसी बड़े घराने या काॅरपोरेट जगत या राजनैतिक दल का नाम जुड़ा हुआ है और न ही ये कोई बड़े-बड़े दावे करती हैं। ये वो महिलायें हैं जो हमारे पास-पड़ोस की और हमारे बीच की हैं, जिनसे हम न जाने कितने बार रूबरू हुए होंगे पर हमंे उनकी खासियत का पता ही नहीं। एक लम्बे समय से धर्मशास्त्रों और रूढ़ियों के नाम पर इन्हें यही बताया जाता रहा कि फला काम तुम्हारे लिए वर्जित है और यदि तुम ऐसा करने का प्रयास करोगी तो तुम्हारे ऊपर अपशकुन व ईश्वरीय प्रकोप का खतरा मंडरायेगा। पर ये औरों से अलग हैं क्योंकि वर्जनाओं को तोड़कर एक अलग लीक बनाना ही इनकी खासियत है। पाश्चात्य सभ्यता के समर्थक कुछ लोगों को नारी स्वतंत्रता का रास्ता दैहिक वर्जनाओं को तोड़ने और उन्मुुक्तता में दिखा। नतीजन, गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह सौंदर्य प्रतियोगिताओं के आयोजन, माॅडल बनने की होड,़ फिल्मों में काम पाने हेतु सर्वस्व न्यौछावर कर देने वालों की बढती भीड़ .... पर समाज का यह वर्ग ऐसा है जो अभी भी सिर से पांव तक पूरे कपड़े पहने अपनी बौद्धिकता और जीवटता के दम पर समाज की रूढ़िगत वर्जनाओं को तोड़ने का साहस रखता है।

कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस की लड़कियों ने तमाम रूढ़िगत वर्जनाओं और परम्पराओं को बहुत पीछे धकेल कर कुछ नये मानदण्ड स्थापित किये हैं। कर्मकाण्ड का सबसे प्रमुख तत्व पुरोहिती है और पांडित्य में बनारस का कोई सानी नहीं। प्राचीन काल से ही यहाँ के पंडितों ने दुनिया भर में अपनी धाक जमाई है। प्राचीनकाल में जहाँ लोमशा एवं लोपामुद्रा आदि नारियों ने ऋग्वेद के अनेक सूक्तों की रचना करके और मैत्रेयी, गार्गी, शाश्वती, घोषा, अदिति इत्यादि विदुषियों ने अपने ज्ञान से तब के तत्वज्ञानी पुरूषों को कायल बना रखा था, उसी परम्परा मंे अब पुरूष पुरोहितों की परम्परा को बनारस की लड़कियों ने तोड़ दिया है। तुलसीपुर स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उतीर्ण कई लड़कियाँ अब लोगों के विवाह करवा रही हैं और यह जरूरी नहीं कि वे ब्राह्मण ही हों। महाविद्यालय की आचार्या नंदिता शास्त्री बड़े गर्व से बताती हैं कि विवाह कराने के लिये उनकी छात्राओं को बनारस ही नहीं वरन् दूर-दूर से लोग आमंत्रित कर रहे हैं। हैदराबाद में बसी यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी को वैदिक रीति से विवाह कराने के लिए अमेरिका तक से आमंत्रण आ चुके हैं। जब इन छात्राओं ने आरम्भ में यह कार्य आरम्भ किया तो इनका विरोध करने के लिए परम्परागत पंडितांे ने वर व कन्या पक्ष को शास्त्रों से उद्धरण देकर काफी भड़काया पर अब वही पंडित इन लड़कियों का लोहा मानने लगे हैं। कारण- मंत्रों का शुद्ध उच्चारण, उसकी सम्यक व्याख्या और वैवाहिक संस्कार की सभी रस्मों का पालन करवाने में लड़कियाँ परम्परागत पंडितों से कहीं आगे हैं। आम तौर पर कम पढ़े-लिखे पंडित विवाहों में शुद्ध मंत्र का उच्चारण तक नहीं कर पाते। अब ये छात्रायंे विवाह ही नहीं शांति यज्ञ, गृह प्रवेश, मंुडन, नामकरण और यज्ञोपवीत भी करा रही हंै। ऐसा नहीं है कि यह क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ बनारस तक ही सीमित है वरन् देश के अन्य भागों में भी इस बदलाव को महसूस किया जाने लगा है। औद्योगिक महानगर कानपुर में कानपुर विद्या मंदिर डिग्री काॅलेज की प्राचार्या डाॅ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करती हैं। उन्होंने जब छात्राओं को सार्वजनिक रूप से वेद पाठ आरम्भ कराया तो व्यापक विरोध भी झेलना पड़ा। यहाँ तक कि एक शंकराचार्य ने इसे वेद विरूद्ध तक घोषित कर दिया। पर आशारानी ने हार नहीं मानी और नतीजन आज उनकी तमाम छात्रायें कर्मकाण्ड कराने लगी हैं। हरिद्वार में कनखल स्थिति माँ योग शक्ति धाम की अधिष्ठाता माँ योग शक्ति ने अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल की साध्वी माँ ज्योतिषानन्दन को जगद्गुरू शंकराचार्य के समकक्ष पार्वत्याचार्य की उपाधि से अलंकृत किया तो गुस्साये साधु सन्तों ने किसी महिला को यह उपाधि देने के विरोध में जमकर हंगामा किया।


सिर्फ घरेलू कर्मकाण्डों तक ही क्यों, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई। इस दिशा में सुनीति गाडगिल ने अलख जगाई जिन्होंने विवाह, पूजा, यज्ञ आदि करवाने में ही भूमिका नहीं निभाई वरन् श्राद्ध कर्म भी करवाकर मिसाल कायम की। बनारस के ही पाण्डेयपुर क्षेत्र की निवासी तनू उर्फ वन्दना जायसवाल, मंडुवाडीह की लक्ष्मीणा देवी, नगर निगम के सफाईकर्मी रहे गोलगड्ढा निवासी मुन्ना की विधवा बीदा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डाॅ0 अलका मुखर्जी ने परिवार में किसी अन्य पुरूष सदस्य के न रहने पर अपनी माँ, पिता और पति का अंतिम संस्कार धार्मिक क्रियाओं के बीच विधिवत सम्पन्न किया। वन्दना जायसवाल ने घंट इत्यादि बाँधकर नित्य घाट पर अपनी माँ का तर्पण भी किया। अब तो इस सामाजिक बदलाव की बयार का असर देश के अन्य भागों में भी दिखाई पड़ने लगा। तभी तो कानपुर की डाॅ0 आशारानी राय महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार सम्पन्न कराने से नहीं हिचकतीं। अपने पिता और श्वसुर का अंतिम संस्कार भी स्वयं उन्होंने ही सम्पन्न किया। यही नहीं कुछेक समय पहले तक प्रयाग के रसूलाबाद घाट पर महाराजिन बुआ नामक महिला श्मशानघाट में वैदिक रीति से अंतिम संस्कार सम्पन्न कराती थीं। राजस्थान के भीलवाड़ा में एक 72 वर्षीया विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने मिलकर अर्थी को कंधा दिया तथा अंतिम संस्कार के लिये चिता को मुखाग्नि दी और पिण्डदान किया। परिवार में बेटों के न होने पर लोगों ने बड़े दामाद से मुखाग्नि दिलवाने का प्रयास किया पर सातों बेटियों ने कहा कि- ‘‘उनकी माँ ने बेटा न पैदा होने पर बेटियों को ही बेटों की तरह पाला तथा किसी भी तरह की कमी नहीं होने दी।’’ हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमी देवी ने तो अपने पति की अर्थी को बेटों को कन्धा तक नहीं लगाने दिया और अर्थी को कंधा देने की जिद करने पर उन्हें धक्के मारकर घर से निकाल दिया। उसने कहा कि मेरे पति के जिन्दा होने पर इन बेटों ने कभी हमारी सेवा नहीं की और न ही रोजमर्रा के खर्च के लिये कोई इन्तजाम किया और ऐसे में पति का निर्देश था कि- ‘‘इन अवारा कलयुगी बेटों को मेरी अर्थी में कंधा न लगाने दिया जाये।’’ अंततः अर्थी को दोनों बहुओं व पड़ोस की दो अन्य औरतों ने कंधा दिया और मुखाग्नि उसके चार पोतों ने दी। इसी प्रकार गोरखपुर स्थित सहजनवां के दीनदयाल उपाध्याय महिला विद्यालय में स्नातक की विकलांग छात्रा बुधवन्त सिंह ने अपने पिता की अर्थी को अपने हाथों से सजाया और कंधा देने वालों के अभाव में ठेले पर रखकर श्मशान घाट ले जाकर विधिवत मुखाग्नि देकर अपना कर्तव्य निभाया। बाँदा में निर्मला गर्ग नामक महिला ने पुत्र के होते हुए भी अपने पति की चिता को आग दी तो शाँहजहापुर में पेशे से इंजीनियर शिप्रा नामक लड़की ने सगाई के अगले ही दिन दिवंगत हुए अपने पिता की अर्थी को न केवल मेंहदी रचे हाथों से कांधों पर धरा बल्कि उन्हें मुखाग्नि देकर रूढ़ियों को भी ललकारा। धार्मिक मान्यताओं पर विश्वास करें तो अंतिम संस्कार कोई भी सम्पन्न करा सकता है किन्तु अदृश्य की उत्पत्ति का अधिकार शास्त्रों में पुत्र और पौत्र के अलावा राजा व ब्राह्मण को ही होता है। भले ही धर्म के पुरोधा मानंे कि शवदाह के बाद का काम ब्राह्मण ही करेगा वरना आत्मा भटकेगी और अगले जन्म में शरीर का अंग-प्रत्यंग भी ठीक-ठाक नहीं होगा पर इन महिलाओं की मानें तो यह पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच है जो सारे पुण्य अकेले ही लूटना चाहता है। हिमाचल प्रदेश की घटना समाज के सामने यह भी सवाल खड़ा करती है कि अपने माँ-बाप की देखरेख न करने वाले बेटों को धार्मिक मान्यताओं के नाम पर माँ-बाप की अर्थी में कंधा देने का क्या नैतिक अधिकार है? निश्चिततः उस निरक्षर दलित महिला ने इसी बहाने माँ-बाप के प्रति संतानों को दायित्व बोध का पाठ भी पढ़ाया।

याद कीजिये ‘बीबी हो तो ऐसी’ फिल्म में नायिका रेखा का घोड़ी पर सवार होकर दूल्हे के द्वार बारात ले जाना। इस फिल्मी कथानक को भी लड़कियों ने हकीकत में बदल दिया। संयोग से इसकी शुरूआत भी कर्मकाण्डों के लिये विख्यात बनारस से ही हुई यानी भोलेनाथ की नगरी में गंगा एक बार फिर उल्टी बही। इस सब के पीछे कश्यप फिल्म एण्ड टेलीविजन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के निदेशक डा0 डी0एल0कश्यप की प्रमुख भूमिका रही, जिन्होंने अपने तीन बेटों और दो बेटियों के हाथ बनारस के घमहापुर गाँव में एक साथ एक ही मण्डप में पीले किये। अभी तक दहेजलोलुप दूल्हों को लड़कियों द्वारा विवाह मण्डप से बाहर निकालने या शराबी दूल्हे के साथ विवाह करने से इन्कार करने जैसे उदाहरण ही सामने आये हैं पर परम्पराओं को दरकिनार करते हुए डा0 कश्यप के तीनों बेटों से विवाह करने उनकी दुल्हनें घोड़ी पर सवार होकर मय बारात उनके दरवाजे आयीं जहाँ दूल्हे के पिता ने बहुओं की आगवानी की तथा उन्हें घोड़ी से उतारकर उनका पाँव पूजा। जबकि परम्परा है कि लड़की का पिता दूल्हे का पाँव पूजता है। प्रतीकात्मक द्वारपूजा के बाद दुल्हनों को मंच पर महाराजा कुर्सी पर बिठाया गया और फिर दूल्हे राजा मंच पर आये। लड़की वालों की ओर से निभाये जाने वाले सभी रस्मोरिवाज लड़कों के पिता ने पूरे किये। इस विवाह में न तो कोई मंत्र पढ़ा गया और न ही सात फेरों के साथ कसमें खायी गयीं, अपितु सिर्फ जयमाल व सिन्दूरदान हुआ। इसी प्रकार जयपुर में कानून की छात्रा रही दो जुड़वा बहनें अपनी शादी के अवसर पर निकाली जानेवाली ‘बिन्दौरी’ में घोड़ी पर सवार होकर निकलीं। उनका मानना था कि- ‘‘यह क्रांतिकारी कदम दर्शाता है कि हमारे समाज में लड़के-लड़कियों में कोई भेद-भाव नहीं है।’’ उ0प्र0 के जौनपुर में जब शादी पश्चात एक लम्बे समय तक पति अपनी विवाहिता को लेने नहीं पहुँचे तो कुछेक लड़कियाँ खुद ही बारात (गौना) लेकर पतियों के दरवाजे पहुँच गयीं। यही नहीं आधी आबादी की प्रतीक नारियों ने अब अनचाहे दूल्हों को दरवाजे से लौटाना भी आरम्भ कर दिया है। गाय की बछिया समझकर किसी के भी हाथ में पगहा पकड़ा देने वाले माता-पिता की पगड़ी की लाज की खातिर, सामाजिक संस्कारों के बोझ तले दबकर अपना भविष्य बर्बाद करने की बजाय तमाम लड़कियों ने दहेज लोभी, शराबी, उम्रदराज इत्यादि जैसे दूल्हों को निडरता से दरवाजे से लौटाने में संकोच नहीं किया।


सामान्यतः शादी योग्य लड़कियांे के लिये लड़के ढूँढ़ने का काम पुरूष वर्ग का माना जाता रहा है पर लखनऊ के अमीनाबाद में रहने वाली नीलम पाण्डे 1996 से इस कार्य को सहजता के साथ कर रही हैं और अब तक उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई हैं। नीलम बेबाक रूप में स्वीकारती हैं कि- ‘‘वर्तमान परिवेश में शादी को लेकर सबसे बड़ी समस्या यह है कि दस काबिल लड़कियों पर मुश्किल से एक लड़का ढूँढ़ने पर मिलता है।’’ शायद यही कारण है कि तमाम लड़कियों ने अब अयोग्य वरों को शादी के मण्डप से बाहर निकालना आरम्भ कर दिया है। दुल्हन के वेश में सजी-धजी बैठी ये लड़कियाँ किसी ऐसे व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में नहीं चाहती, जो उनको व उनके परिवार को प्रतिष्ठाजनक स्थान न दे सके या दहेज की आड़ में धनलोलुपता का शिकार हो। अब तो कुछ ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं, जहाँ लड़की ने कलयुग में स्वयंवर रचा कर वर चुनने की आजादी ली हो। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के घुमका गाँव में 8 जुलाई 2008 को एक लड़की अन्नपूर्णा ने स्वयंवर द्वारा अपना पति चुना। 8वीं पास 22 वर्षीया अन्नपूर्णा द्वारा स्वयंवर रचा कर वर चुनने की योजना का शुरू में समाज में काफी विरोध हुआ लेकिन समाज की परवाह किए बिना वह अपने रास्ते चलती रही। आखिरकार समाज भी साथ हो गया। स्वयंवर के प्रचार के लिए बाकायदा इलाके में पोस्टर लगाए गए और पास-पड़ोस के गाँवों में डुग्गी और लाउडस्पीकर के जरिए भी लोगों को इसकी जानकारी दी गई थी। स्वयंवर में शामिल होने वाले युवाओं की अधिकतम उम्र 26 साल तय की गई थी। अन्नपूर्णा से विवाह के इच्छुक लोगों को उसके पाँच धार्मिक सवालों का जवाब देना था। हल्बा आदिवासी समुदाय के युवकों को ही इसमें शामिल होने की अनुमति थी। स्वयंवर में केवल तीन युवक ही शामिल हुए। इनमें मात्र 12वीं पास और पेशे से किसान घनाराम नामक व्यक्ति ने स्वयंवर में पूछे सभी पाँच सवालों के सही जवाब दिये और अन्नपूर्णा ने इस व्यक्ति को जीवन साथी के रूप में चुना।

वक्त के साथ पुरानी परम्परायें टूटती हैं और नयी परम्परायें स्थापित होती हैं। आंध्रप्रदेश का तिरूपति बालाजी मंदिर पूरे विश्व में विख्यात है और हर दिन यहाँ बेशुमार लोग भगवान बालाजी कोे अपने केश अर्पित करने आते हैं। इनमें अच्छी खासी तादाद महिलाओं की होती है और एक लम्बे समय से मंदिर में महिला मुण्डनकर्मियों को बिठाने की माँग उठती रही है। 31 मार्च 2005 को एक लम्बे संघर्ष बाद नाईनों को यहाँ नियुक्त करने का फैसला किया गया। इसके बाद तो इस निर्णय को भी धार्मिक आस्थाओं से जोड़कर देखा जाने लगा और तर्क दिया गया कि- ‘‘प्रतीकात्मक रूप से स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी की प्रतिनिधि हैं इसलिए उन्हें मुण्डन कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि यह कृत्य उनकी दरिद्रता को दर्शाता है।’’ पर नाईनों ने हार नहीं मानी और तर्क दिया कि इस कार्य से उन्हें रोजगार मिलेगा और उनकी दरिद्रता व गरीबी दूर हो सकेगी। यही नहीं कर्म के आधार पर पुरूष नाईयों से अपने को कमतर नहीं आंकने वाली इन महिलाओं ने यह भी कहा कि उनसे बाल उतरवाने वाली महिलायें अपने को ज्यादा सहज महसूस कर सकेंगी। समाज की दरियाकनूसी परम्पराओं के चलते जहाँ अभी भी दलितों के घरों में पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठानों हेतु पंडित ढूँढ़े नही मिलते, वहाँ बरेली के भमोरा इलाके की आशा और ज्योति नामक दो बहनें तमाम दलित और मलिन बस्तियों में जाकर अनुष्ठान करती हैं और इस कार्य से मिलने वाले धन को गरीब लड़कियों की शादी, भण्डारा या किसी पीड़ित व्यक्ति की सेवा पर खर्च कर देती हैं।

राजस्थान सदैव से सामंती समाज माना जाता रहा है पर उस सामंती समाज की विधवाओं ने उन अमानवीय सामाजिक रूढ़ियों को दुत्कारने का साहस दिखाया है, जहाँ सती प्रथा जैसी बुराईयों के महिमामण्डन के जरिये विधवाओं से जीने का हक तक छीना जाता रहा है। यह वही राजस्थान है जहाँ 1987 में देवराला सती काण्ड के दौरान सती रूपकँवर के चबूतरे पर चूड़ियाँ और सिन्दूर चढ़ाने की स्त्रियों में होड़ सी मची थी। अब उसी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में ‘एकल नारी शक्ति संगठन’ के नेतृत्व में वैधव्य जीवन जी रही हजारों स्त्रियों ने उन साज-श्रंृगारों का इस्तेमाल करना आरम्भ कर दिया है जो विधवा होते ही समाज उनसे छीन लेता है। हाथों में मंेहदी, कलाईयों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, माथे पर बिंदिया और खूबसूरत परिधानों के साथ ये विधवायें मांगलिक कार्यों में भी बढ़-चढ़ कर अपनी सहभागिता दर्ज करा रही हैं।

मुस्लिम समुदाय में जहाँ काजी का काम पुरूष के बूते का ही माना जाता रहा है, एक नारी ने पुरूषों का वर्चस्व तोड़ दिया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की काजी शबनम आरा बेगम इस देश की पहली महिला काजी हैं। शबनम के काजी बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं। अपने काजी पिता की सातवीं बेटी शबनम ने पिता के लकवाग्रस्त हो जाने पर निकाह कराने में उनकी मदद करना आरम्भ किया। शरीयत का अच्छी तरह इल्म हो जाने पर पिता जी ने उसे नायब काजी बना दिया। सन् 2003 में पिता जी की मौत के बाद शबनम ने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु काजी बनने का रास्ता चुना और संयोग से काजी के रूप में उनका पंजीयन भी हो गया। पर काजी बनने के बाद शबनम की असली दिक्कतें आरम्भ हुयीं। अंततः धमकियों और मुकदमों के बीच शबनम अपने को काजी पद के योग्य साबित करने में सफल हुयीं। इसी प्रकार लखनऊ में अगस्त 2008 में भारतीय मुस्लिम महिला आन्दोलन की अध्यक्ष नाइश हसन और दिल्ली के इमरान का निकाह एक महिला काजी डाॅ0 सईदा हमीद ने पढ़ाया। गौरतलब है कि डाॅ0 सईदा हमीद योजना आयोग की सदस्य भी हैं।

21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध उन्हीं क्षेत्रों से सामाजिक बदलाव की बयार चली है, जिन्हें इन रूढ़िगत कर्मकाण्डों का गढ़ माना जाता रहा है। इस सामाजिक बदलाव का कारण जहाँ महिलाओं में आई जागरूकता है, जिसके चलते महिलायें अपने को दोयम नहीं मानतीं और कैरियर के साथ-साथ सामाजिक परम्पराओं के क्षेत्र में भी बराबरी का हक चाहती हैं। वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। आधुनिक महिलायें इस तर्क को बेबाकी से खारिज करतीं हैं कि पुण्य कमाने के क्षेत्र में ईश्वर ने पुरूषों को ज्यादा अधिकार दिये हैं। ऐसे तर्कों को वे पुरूष प्रधान पितृसतात्मक समाज की सोच मात्र मानती है। उनके लिये सवाल अब परम्पराओं का ही नहीं वरन् उनके कसौटी पर खरे उतरने का भी है। मात्र किसी धार्मिक गं्रथ के उद्धरणों के आधार पर नारी शक्ति को दबाया नहीं जा सकता। अब ये महिलायें पूछने लगी हैं कि पुण्य के कामों के समय हाथ पर बाँधा जाने वाला कलावा लड़कों के दायें और लड़कियों के बायें हाथ पर क्यों बाँधा जाता है, क्यों नहीं दोनों के एक ही हाथ पर बाँध दिया जाता है? यदि पूजा-पाठ या पुण्य के कार्य कराने के लिए जनेऊ धारण करना शास्त्रों में जरूरी माना गया है तो पुरोहित का कार्य करने वाली महिला जनेऊ क्यों नहीं धारण कर सकती? योग्यता चाहे वह पुरूष की हो अथवा महिला की- बराबर ही कही जायेगी। जहाँ प्रकृति पुरूष-स्त्री को बिना किसी भेदभाव के बराबर धूप-छांव बाँटती हो, वहाँ धर्म या परम्परा की आड़ में अतार्किक आधार पर स्त्रियों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने को उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोई महिला यदि किसी क्षेत्र में जाना चाहती है तो मात्र इसलिए कि वह एक महिला है, उसको उस क्षेत्र में जाने से नहीं रोका जा सकता। आखिर अपनी पसन्द का क्षेत्र चुनने का सभी को अधिकार है। यह निर्णय करने का समय आ चुका है कि अज्ञानी एवं अल्पज्ञानी पुरूषों के भरोसे धर्म की सनातन परम्परा और उसके आचार-विचार सुरक्षित रहेंगे या शिक्षित-प्रशिक्षित नारियों के हाथ में उसकी पताका महफूज रहेगी? प्रख्यात ज्योतिषी के0ए0दुबे पद्मेश जैसे विद्वान भी इन छात्राओं के कदम से उत्साहित दिखते हैं और इससे प्रेरित होकर अपना उत्तराधिकारी किसी नारी को ही बनाना चाहते हैं। फर्क मात्र इतना है कि आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत सामाजिक मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठायी थी पर 21वीं सदी के इस दौर में महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं।

- कृष्ण कुमार यादव

हिन्दी कविता को नया मिजाज दिया अज्ञेय ने (जन्मतिथि ७ मार्च पर)

आधुनिक हिंदी साहित्य में अपनी बहुमुखी प्रतिभा विशेषकर कविता के जरिए विशिष्ट छाप छोड़ने वाले साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय ने अपनी परिष्कृत संवेदना से आधुनिक समाज के विभिन्न पक्षों को समझने और उन्हें अभिव्यक्त करने का प्रयास किया। उत्तर छायावाद दौर में हिन्दी कविता के शीर्ष कवियों में रहे सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ने न केवल हिन्दी कविता को नया मिजाज दिया बल्कि तार सप्तक और विभिन्न सप्तकों के जरिए तमाम नए कवियों को आगे लाने का काम किया। अज्ञेय नई कविता के पुरोधा थे। उन्होंने उत्तर छायावाद के बाद सर्वथा नई भाषा और बिंब दिए और हिंदी कविता के लिए नई जमीन तोड़ी। यद्यपि कुछ आलोचक अज्ञेय को छंद विरोधी कहते हैं, पर यह सही नहीं है। अज्ञेय ने चाहे कविता के छंद की लय हो या जीवन की लय हो, उसे हमेशा महत्व दिया। उनकी कविता का प्रभाव साहित्य में आज तक दिखाई पड़ता है। कविता के साथ-साथ उन्होंने उपन्यास, कहानी, निबंध, डायरी, यात्रा संस्मरण सहित अन्य विधाओं में नए प्रतिमान गढ़ने का प्रयास किया। हिंदी काव्य में जयशंकर प्रसाद के बाद प्रकृति और प्रेम के विभिन्न रूपों पर सबसे अधिक अज्ञेय ने ही लिखा है। उनकी कविता में प्रकृति और प्रेम विभिन्न रूपों में सामने आता है।अपनी कविताओं में अज्ञेय ने आधुनिक संवेदनाओं और महानगरीय बोध को भी प्रमुखता से स्थान दिया। उनकी कविता छायावाद के दौर से नितांत भिन्न होने के बावजूद हिंदी की तमाम विशिष्टताओं को संजोती है। अज्ञेय के प्रमुख काव्य संग्रहों में भग्नदूत, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में 7 मार्च 1911 को जन्मे अज्ञेय का गद्य के मामले में भी कोई जवाब नहीं था। उन्होंने ''शेखर एक जीवनी'' नामक विलक्षण उपन्यास लिखा, जो कि हिंदी साहित्य के बेहद चर्चित उपन्यासों में शामिल हैं। यह आत्मपरक रचना दरअसल व्यक्तित्व की खोज पर आधारित थी। इसके अलावा उन्होंने नदी के द्वीप और अपने अपने अजनबी उपन्यास भी लिखे। अरे यायावर रहेगा याद और एक बूंद सहसा उछली उनके यात्रा वृत्तांत हैं। उनके कई निबंध संग्रह भी हैं। अज्ञेय पत्रकारिता के क्षेत्र में भी काफी सक्रिय रहे। उन्होंने सैनिक, दिनमान, नवभारत टाइम्स सहित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं का संपादन किया। दिनमान पत्रिका के संपादन से जुड़कर उसे हिन्दी पत्रकारिता का गौरव बना दिया। अज्ञेय कि निबंध शैली भी काफी विशिष्ट रही है। उनके सभी निबंध तर्कशुद्ध चिंतन पर आधारित होते हैं। इन निबंधों में वह समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर सूक्ष्म से सूक्ष्म चिंतन करते थे। अज्ञेय के यात्रा वृत्तांतों, डायरी तथा संस्मरणों में उनकी चिंतनशीलता की बखूबी झलक मिलती है। अज्ञेय ने तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक के जरिए हिन्दी साहित्य के कई प्रतिभावान कवियों की कृतियों का संचयन किया। उन्हें आंगन के पार द्वार के लिए साहित्य अकादमी और कितनी नावों में कितनी बार के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जयशंकर प्रसाद के बाद अज्ञेय ही ऐसे कवि है जिनके साहित्य में काफी परिष्कृत संवेदना दिखाई देती है। उन्होंने साहित्य की शायद ही कोई ऐसी विधा हो जिस पर कलम न चलाई हो। अज्ञेय अपने निजी जीवन में भी प्रोयाग्धर्मी थे। एक यात्रा के दौरान उन्होंने छोटी सी नदी के जल में खड़े होकर काव्य पाठ किया था जबकि बाकी साहित्यकार नदी में उभरी एक चट्टान पर बैठे थे। इसी प्रकार उन्होंने अपने घर में एक पेड़ पर कुटिया बनाई थी। अज्ञेय ने आजादी के आंदोलन में भी क्रांतिकारी रूप में भाग लिया और जेल गए।