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बुधवार, 29 जुलाई 2009

झूठ पकड़ने वाली मशीन : पालीग्राफ

आजकल ‘सच का सामना‘ सीरियल चर्चा में है। इसे पश्चिमी देशों की नकल के रूप में देखा जा रहा है। बताते हैं कि 1950 में राल्फ एंड्रयूज ने पहला पालीग्राफ टीवी शो ‘लाइ डिटेक्टर‘ नाम से बनाया था। फिलहाल ‘सच का सामना‘ सीरियल को लेकर तमाम विवाद सड़क से संसद तक गूँज रहे हैं। मानवीय मन की सच्चाई को पकड़ने के लिए इस सीरियल में पालीग्राफ का इस्तेमाल किया जा रहा है। गौरतबल है कि पालीग्राफ टेस्ट का प्रयोग सामान्यतया अपराधियों से सच उगलवाने के लिए किया जाता है। इसमें जब किसी व्यक्ति से प्रश्न पूछा जाता है तो व्यक्ति के ब्लड प्रेशर, धड़कनों, शरीर के तापमान, साँस की गति और त्वचा की चालकता के आधार पर जवाब का मापन किया जाता है। पालीग्राफ टेस्ट के लिए मुख्यतः कम्प्यूटराइज्ड और एनालाॅग तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। पालीग्राफ टेस्ट के आरम्भ में किसी व्यक्ति की प्रारंभिक जानकारी एकत्रित की जाती है। उसके बाद टेस्टर इस बात की जानकारी देता है कि पालीग्राफ कैसे काम करता है और यह झूठ कैसे पकड़ता है। संक्षिप्त में कहें तो पालीग्राफ एक ऐसा आधुनिक संयंत्र है जो मनोवैज्ञानिक जवाबों को रिकार्ड करता है। प्रश्न पूछने के दौरान पालीग्राफ टेस्ट ‘सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम‘ के कारण हुए मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को परखता है।

पालीग्राफ के जन्म की अपनी कहानी है। वर्ष 1885 में सीजर लोंब्रोसो ने पुलिस के विभिन्न मामलों में ब्लडप्रेशर को मापने के लिए लाइ-डिटेक्शन पद्यति का प्रयोग किया था। इसके लगभग 29 साल बाद 1914 में विटोरियों बेनुसी ने साँस की गति के आधार पर झूठ पकड़ने वाली एक मशीन का निर्माण किया था। कालान्तर में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डा0 जान.ए. लार्सन ने ऐसी मशीन बनाई, जो ब्लड प्रेशर और त्वचा के आधार पर झूठ का मापन करती थी। इन तमाम प्रयोगों के बीच ही वर्तमान रूप में पालीग्राफ मशीन अस्तित्व में आई। यद्यपि पाॅलीग्राफ टेस्ट का प्रयोग अक्सर विवादों में रहा है फिर भी अमेरिका, यूरोप, कनाडा, आस्ट्रेलिया, इजराइल और भारत में पालीग्राफ टेस्ट को मान्यता दी गई है।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ ...विजयी विश्व तिरंगा प्यारा

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा.... का उद्घोष हमने कई बार किया होगा। पर बहुत कम लोगों को पता होगा कि केसरिया, सफेद और हरे रंग के इस तिरंगे को 22 जुलाई 1947 को घोषित रूप से राष्ट्रीय ध्वज का स्वरूप मिला। आज इस तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ है। गौरतलब है कि 7 अगस्त 1906 को कोलकाता के ग्रीन पार्क में राष्ट्रवादियों द्वारा पहला भारतीय ध्वज फहराया गया था। इस ध्वज में क्रमशः पीली, लाल तथा हरे रंग की ऊपर से नीचे की ओर लंबी-लंबी पट्टियां थीं। ऊपर की पीली पट्टी पर आठ कमल बने थे। अगले ही वर्ष 1907 में मेडम कामा ने एक ध्वज फहराया जिसका आकार व रंगों की पट्टी तो कलकत्ता में फहराये गये ध्वज जैसी ही थीं परंतु ऊपर की पीली पट्टी पर कमल के स्थान पर सात तारे बने थे। वस्तुतः मैडम कामा आर्य समाजी थीं और उन्होंने इन तारों में सप्त ऋषियों की कल्पना की थी। इसके चार साल बाद 1911 में बर्लिन में हुए साम्यवादियों के सम्मेलन में तीसरा भारतीय ध्वज फहराया गया। यह ध्वज मैडम कामा के ध्वज की ही तरह था। चौथा ध्वज 1917 में पंजाब में एनीबेसेंट और लोकमान्य तिलक ने फहराया। इस ध्वज में पांच लाल पट्टियां थीं। सबसे ऊपर वाली पट्टी में सात तारे बने थे। इस ध्वज में खास बात यह थी कि ध्वज के स्तभ की ओर वाले हिस्से में किनारे एक छोटा सा ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक बना था और लहराने वाले हिस्से में किनारे अर्द्ध चंद्र में तारा बना था।



तत्पश्चात 1921 में विजयवाड़ा (आन्ध्र प्रदेश) के कांग्रेस सम्मेलन में एक चुवक ने ध्वज फहराया जिसमें लाल, सफेद व हरी पट्टियां थीं। गांधी जी को यह झंडा पसंद आया तो उन्होंने सफेद पट्टी पर चरखा बनाने को कहा। अधिवेशन के अंत में यही चरखा वाला झंडा फहराया गया। धीरे-धीरे लाल रंग केसरिया में तब्दील हो गया और यही झंडा 1921 के कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में फहराया गया। बाद में एक प्रस्ताव पारित कर इस ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज की संज्ञा दी गयी। 22 जुलाई 1947 को वरिष्ठ विचारक पिंगली वेंकैयानंद ने वर्तमान राष्ट्रध्वज की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए प्रस्ताव रखा कि ध्वज में चरखे के स्थान पर प्रगति के प्रतीक सम्राट अशोक का धर्मचक्र रखा जाये। इसे स्वीकार कर लिया गया। तभी से तिरंगा राष्ट्रध्वज शान और आन बान से लहरा रहा है। इसी समय इसके निर्माण के लिए मानक भी तय हुए कि ध्वज निश्चित तरह के धागे से बने खादी के कपड़े से ही तैयार किये जाते हैं। चार कोने वाल आयताकार ध्वज अलग-अलग नाम के हो सकते हैं परन्तु उनकी चैड़ाई एंव लम्बाई में अनुपाल क्रमशः 4 गुना 6 ही रहेगा। इन्हीं विशिष्टताओं के मद्देनजर राष्ट्रीय ध्वज बनाने की जिम्मेदारी खादी कमीशन मुम्बई एवं धारवाड़ तालुका गैराज क्षत्रीय सेवा संघ गुजरात जैसी कुछ ही संस्थाओं को दी गई है। आज तिरंगे की 62वीं वर्षगांठ पर तिरंगे के प्रति सम्मान और समर्पण के ये शब्द याद आते हैं-‘कौमी तिरंगा झंडा ऊंचा रहे जहां में, हो तेरी सर बुलंदी चांद-आसमां में'' !!

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

बिखरते शब्द

शंकर जी के डमरू से
निकले डम-डम अपरंपार
शब्दों का अनंत संसार
शब्द है तो सृजन है
साहित्य है, संस्कृति है
पर लगता है
शब्द को लग गई
किसी की बुरी नजर
बार-बार सोचता हूँ
लगा दूँ एक काला टीका
शब्द के माथे पर
उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के इस दौर में
शब्द बिखर रहे हैं
हावी होने लगा है
उन पर उपभोक्तावाद
शब्दों की जगह
अब शोरगुल हावी है !!

बुधवार, 15 जुलाई 2009

आई- नेक्स्ट अख़बार में चर्चा

जागरण समूह के अख़बार "आई-नेक्स्ट" में 15 जुलाई, 2009 को "ताका-झांकी" कॉलम के अर्न्तगत सेलेब्रिटी के रूप में कृष्ण कुमार यादव और उनके परिवार की चर्चा की गई। इसे आई-नेक्स्ट अख़बार के वेब लिंक पर भी देखा जा सकता है !!

शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

ऑरकुट के जन्म की कहानी

सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट की दुनिया में ऑरकुट के नाम से भला कौन अपरिचित होगा। यह अब इतना लोकप्रिय हो चुका है कि इस पर तमाम नामी-गिरामी हस्तियां तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराने से रोक नहीं पाती हैं। यही नहीं ऑरकुट ग्रुप के माध्यम से तमाम लोग अपनी लोकप्रियता में इजाफा कर रहे हैं। ऑरकुट आज सिर्फ मैत्री भाव को ही नहीं साहित्य-कला-संस्कृति-विज्ञान जैसी तमाम सामूहिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का भी माध्यम बन चुका है। तमाम राजनैतिक दल एवं राजनीतिज्ञ इसके माध्यम से कैम्पेनिंग भी करते नजर आते हैं। यद्यपि ऑरकुट जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के अपने नुकसान भी हैं और अराजक तत्व इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। पर हर अच्छाई अपने साथ बुराई को लेकर ही चलती है।

ऑरकुट के जन्म की अपनी दिलचस्प कहानी है। आरकुट बायोक्टेन नामक व्यक्ति के दिमाग में स्कूली दिनों में बिछड़ गई अपनी गर्लफ्रेंड को खोजने की प्रबल चाह ही अन्ततः इस सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट का कारण बनी। यद्यपि यह कार्य आसान नहीं था पर प्रेम बहुत कुछ करा जाता है। आरकुट बायोक्टेन इसे लेकर नित् तरह-तरह की परिकल्पनाएं करते। 20 साल की उम्र में जब आरकुट बायोक्टेन आईटी के टेक्निकल आर्किटेक्ट बन गए तो उनके दिमाग में एक मजेदार विचार आया। उन्होंने कंप्यूटर इंजीनियरों से एक ऐसा साटवेयर तैयार करने को कहा, जिसके जरिए संदेश भेजे जा सकें और दूसरा भी उस पर अपना संदेश लिख सके। सोशल नेटवर्किंग की भाषा में इसी को ‘स्क्रैप‘ कहा गया। यह अद्भुत विचार अन्ततः फलीभूति हुआ एवं तीन साल की कड़ी मशक्कत के बाद आरकुट बायोक्टेन को अपनी खोई हुई गर्लफ्रेंड मिल गई। आरकुट बायोक्टेन का इरादा पूरा हो गया तो उन्होंने इसे बंद करना चाहा, लेकिन तब तक आईटी में तेजी से नाम कमा रही गूगल कंपनी को यह विचार पसंद आया और उसने वर्ष 2004 में इस साटवेयर को खरीद लिया। तब से लेकर आज तक ऑरकुट पर रोज हजारों-लाखों लोग जुड़ते हैं और न जाने कितने भूले-बिसरे दोस्त-यार एक दूसरे के टच में आते हैं।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

गाँधी जी के विचारों की ओर उन्मुख पाश्चात्य देश

विश्व पटल पर महात्मा गाँधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंगे्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि -‘‘हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है।


अब अमेरिका में महात्मा गाँधी के विचारों की धूम मची हुई है। अमेरिकी कांग्रेस के छः सदस्यों ने बापू को दुनिया भर में स्वतंत्रता और न्याय का प्रतीक बताते हुए प्रतिनिधि सभा में उनकी 140वीं जयंती मनाने संबंधी प्रस्ताव पेश किया। 26 जून को प्रस्तावित विधेयक संख्या 603 में भारत के राष्ट्रपिता को एक दूरदर्शी नेता बताया गया है, जिनकी वजह से विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और भारत के बीच मधुर संबंध स्थापित हो सके। प्रस्ताव में कहा गया है कि गाँधी एक महान, समर्पित और आध्यात्मिक हिन्दू राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का मार्गदर्शन किया था। साथ ही देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थापना में अद्वितीय भूमिका निभाई। अमेरिकी संासदों का मानना है कि आने वाली पीढ़ियां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और लोकतंत्र की स्थापना में गाँधी के योगदान को हमेशा याद करेंगी।


संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद अमेरिका ने गाँधी जयन्ती के संबंध में पहल करके जता दिया है कि सत्य, प्रेम व सहिष्णुता पर आधारित गाँधी जी के सत्याग्रह, अहिंसा व रचनात्मक कार्यक्रम के अचूक मार्गों पर चलकर ही विश्व में व्याप्त असमानता, शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, दुराचार, नक्सलवाद, पर्यावरण असन्तुलन व दिनों-ब-दिन बढ़ते सामाजिक अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है। यहाँ तक कि भारत में भी गाँधी जी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए विकल्प का निर्माण आज पूर्वोत्तर भारत व जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों की समस्याओं, नक्सलवाद व घरेलू आतंकवाद से निपटने में जितने कारगार हो सकते हैं उतना बल-प्रयोग नहीं हो सकता। गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हंै। तभी तो भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउण्टबेन ने कहा था - ‘‘गाँधी जी का जीवन खतरों से भरी इस दुनिया को हमेशा शान्ति और अहिंसा के माध्यम से अपना बचाव करने की राह दिखाता रहेगा।’’