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शनिवार, 15 अगस्त 2009

समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को

स्वतंत्रता की गाथा सिर्फ अतीत भर नहीं है बल्कि आगामी पीढ़ियों हेतु यह कई सवाल भी छोड़ती है। वस्तुतः भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था, जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक-धार्मिक सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेज इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह‘ मात्र की संज्ञा देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह विद्रोह मात्र सरकार व सिपाहियों के बीच का अल्पकालीन संघर्ष था, न कि सरकार व जनता के बीच का संघर्ष। वस्तुतः इस प्रचार द्वारा उन्होंने भारत के कोने-कोने में पनप रही राष्ट्रीयता की भावना को दबाने का पूरा प्रयास किया। पर इसमें वे पूर्णतया कामयाब नहीं हुये और इस क्रान्ति की ज्वाला अनेक क्षेत्रों में एक साथ उठी, जिसने इसे अखिल भारतीय स्वरूप दे दिया। इस संग्राम का मूल रणक्षेत्र भले ही नर्मदा और गंगा के बीच का क्षेत्र रहा हो, पर इसकी गूँज दूर-दूर तक दक्षिण मराठा प्रदेश, दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों, गुजरात और राजस्थान के इलाकों और यहाँ तक कि पूर्वोत्तर भारत के खासी-जंैतिया और कछार तक में सुनाई दी। परिणामस्वरूप, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का यह प्रथम प्रयास पे्ररणास्रोत बन गया और ठीक 90 साल बाद भारत ने स्वाधीनता के कदम चूमकर एक नये इतिहास का आगाज किया।

भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि आजादी के दीवानों का लक्ष्य सिर्फ अंग्रजों की पराधीनता से मुक्ति पाना नहीं था, बल्कि वे आजादी को समग्र रूप में देखने के कायल थे। भारतीय पुनर्जागरण के जनक कहे जाने वाले राजाराममोहन राय से लेकर भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी और महात्मा गाँधी तक ने एक आदर्श को मूर्तरूप देने का प्रयास किया। राजाराममोहन राय ने सती प्रथा को खत्म करवाकर नारी मुक्ति की दिशा में पहला कदम रखा, ज्योतिबाफुले व ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने शैक्षणिक सुधार की दिशा में कदम उठाए, स्वामी विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती ने आध्यात्मिक चेतना का जागरण किया, दादाभाई नौरोजी ने गरीबी मिटाने व धन-निकासी की अंग्रेजी अवधारणाओं को सामने रखा, लाल-बाल-पाल ने राजनैतिक चेतना जगाकर आजादी को अधिकार रूप में हासिल करने की बात कही, वीर सावरकर ने 1857 की क्रान्ति को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में चिन्हित कर इसकी तुलना इटली में मैजिनी और गैरिबाल्डी के मुक्ति आन्दोलनों से व्यापक परिप्रेक्ष्य में की, भगत सिंह ने क्रान्ति को जनता के हित में स्वराज कहा और बताया कि इसका तात्पर्य केवल मालिकों की तब्दीली नहीं बल्कि नई व्यवस्था का जन्म है, महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह व अहिंसा द्वारा समग्र भारतीय समाज को जनान्दोलनों के माध्यम से एक सूत्र में जोड़कर अद्वैत का विश्व रूप दर्शन खड़ा किया, पं0 नेहरू ने वैज्ञानिक समाजवाद द्वारा विचारधाराओं में सन्तुलन साधने का प्रयास किया, डा0 अम्बेडकर ने स्वाधीनता को समाज में व्याप्त विषमता को खत्म कर दलितों के उद्धार से जोड़ा.........। इस आन्दोलन में जहाँ हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर लड़े, दलितों-आदिवासियों-किसानों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। तमाम नारियों ने समाज की परवाह न करते हुये परदे की ओट से बाहर आकर इस आन्दोलन में भागीदारी की।

स्वाधीनता का आन्दोलन सिर्फ इतिहास के लिखित पन्नों पर नहीं है, बल्कि लोक स्मृतियों में भी पूरे ठाठ-बाट के साथ जीवित है। तमाम साहित्यकारों व लोक गायकों ने जिस प्रकार से इस लोक स्मृति को जीवंत रखा है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है (भगत सिंह)। यह अनायास ही नहीं है कि अधिकतर नेतृत्वकर्ता और क्रान्तिकारी अच्छे विचारक, कवि, लेखक या साहित्यकार थे। तमाम रचनाधर्मियों ने इस ‘क्रान्ति यज्ञ’ में प्रेरक शक्ति का कार्य किया और स्वाधीनता आन्दोलन को एक नयी परिभाषा दी।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस बात की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के तमाम छुये-अनछुये पहलुओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये और औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को खत्म किया जाये। इतिहास के पन्नों में स्वाधीनता आन्दोलन के साक्षात्कार और इसके गहन विश्लेषण के बीच आत्मगौरव के साथ-साथ उससे जुड़े सबकों को भी याद रखना जरूरी है। राजनैतिक स्वतन्त्रता से परे सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी सच्चे अर्थों में हमारा ध्येय होना चाहिए। इसी क्रम में युवा पीढ़ी को राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास से रूबरू कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, पर उससे पहले इतिहास को पाठ्यपुस्तकों से निकालकर लोकाचार से जोड़ना होगा।

सोमवार, 10 अगस्त 2009

जन्मदिन का फंडा

ये जन्मदिन भी बड़ी अजीब चीज है। समझ में नहीं आता लोग जीवन के एक साल खत्म होने का जश्न मना रहे हैं या एक साल ठीक-ठाक कट जाने का। जब हम स्कूल के दिनों में थे तो साथियों को टाफियां बांटकर जन्म दिन मनाया करते थे। कई बार स्कूल की प्रातः सभा में यह ऐलान भी किया जाता कि आज फलां का जन्मदिन है। कई दोस्त तो सरप्राइज देने के लिए अपने हाथों से बना ग्रीटिंग कार्ड भी सामूहिक रूप से देते थे। जब हम नवोदय विद्यालय, आजमगढ़ में पढ़ते थे तो कुछ ऐसे ही बर्थडे मनाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आये तो बर्थडे का मतलब होता-किसी थियेटर में जाकर बढ़िया फिल्म देखना और शाम को मित्रों के साथ जमकर चिकन-करी खाना। हर मित्र इन्तजार करता कि कब किसी का बर्थडे आये और उसे बकरा बनाया जाय। बर्थडे केक जैसी चीजें तो एक औपचारिकता मात्र होती। ऐसे दोस्त-यार बड़ी काम की चीज होते, जिनकी कोई गर्लफ्रेन्ड होती। ऐसे लोग बर्थडे की शोभा बढ़ाने के लिए जरूर बुलाये जाते। वो बन्धुवर तो हफ्तेभर पहले से ही दोस्तों को समझाता कि यार ध्यान रखना अपनी गर्लफ्रेण्ड के साथ आ रहा हूँ। मेरी इज्जत का जनाजा न निकालना। कुछ भी हो उन बर्थडे का अपना अलग ही मजा था।


जब सरकारी सेवा में आया तो बर्थडे का मतलब भी बदलता गया। बर्थडे बकायदा एक त्यौहार हो गया और उसी के साथ नये-नये शगल भी पालते गये। बर्थडे केक, रंग-बिरंगे गुब्बारे, खूबसूरत और मंहगे गिफ्ट, किसी फाइव स्टार होटल का लजीज डिनर और इन सबके बीच सुन्दर परिधानों मे सजा हु व्यक्तित्व...कब जीवन का अंग बन गया, पता ही नहीं चला। पहले कभी किसी मित्र या रिश्तेदार का जन्मदिन पर भेजा हुआ ग्रीटिंग कार्ड मिलता था तो बड़ी आत्मीयता महसूस होती थी, पर अब तो सुबह से ही एस0एम0एस0, ई-मेल, आरकुटिंग स्क्रैप्स की बौछार आ जाती है। कई लोग तो एक ही मैसेज स्थाई रूप से सेव किये रहते हैं, और ज्यों ही किसी का बर्थडे आया उसे फारवर्ड कर दिया। कभी एक अदद गुलाब ही बर्थडे के लिए काफी था पर अब तो फूलों का पूरा गुच्छा अर्थात बुके का जमाना है। अगली सुबह जब इन बुके को देखिये तो उनका मुरझाया चेहरा देखकर पिछला दिन याद आता है कि कितनी दिल्लगी से ये हमारी सेवा में प्रस्तुत किये गये थे। तो चलिए इस बार इतना ही...मैं भी तैयार होता हूँ अपना बर्थडे सेलिब्रेट करने के लिए।

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

लिंग समता के मायने

सृष्टि के आरम्भ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यह बात इस तथ्य से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि यदि नर व नारी दोनों में से कोई भी एक न हुआ होता तो सृष्टि की रचना ही सम्भव न थी। कुछेक अपवादों को छोड़कर विश्व में लगभग हर प्रकार के जीव-जन्तुओं में दोनों रूप नर-मादा विद्यमान हैं. समाज में यह किवदन्ती प्रचलित है कि भगवान भी अर्द्धनारीश्वर हैं अर्थात उनका आधा हिस्सा नर का है और दूसरा नारी का। यह एक तथ्य है कि पुरूष व नारी के बिना सृष्टि का अस्तित्व सम्भव नहीं, दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु इसके बावजूद भी पुरूष व नारी के बीच समाज विभिन्न रूपों में भेद-भाव करता है। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप “लिंग समता” अवधारणा का उद्भव हुआ अर्थात “लिंग के आधार पर भेदभाव या असमानता का अभाव”।

जैविक आधार पर देखें तो स्त्री-पुरूष की संरचना समान नहीं है। उनकी शारीरिक-मानसिक शक्ति में असमानता है तो बोलने के तरीके में भी । इन सब के चलते इन दोनों में और भी कई भेद दृष्टिगत होते हैं। इसी आधार पर कुछ विचारकों का मानना है कि -“स्त्री-पुरूष असमता का कारण सर्वथा जैविक है।” अरस्तू ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि - “स्त्रियाँ कुछ निश्चित गुणों के अभाव के कारण स्त्रियाँ हैं” तो संत थॉमस ने स्त्रियों को “अपूर्ण पुरूष” की संज्ञा दी। पर जैविक आधार मात्र को स्वीकार करके हम स्त्री के गरिमामय व्यक्तित्व की अवहेलना कर रहे हैं। प्रकृति द्वारा स्त्री-पुरूष की शारीरिक संरचना में भिन्नता का कारण इस सृष्टि को कायम रखना था । अतः शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से सबको समान बनाना कोरी कल्पना मात्र है। अगर हम स्त्रियों को इस पैमाने पर देखते हैं तो इस तथ्य की अवहेलना करना भी उचित नहीं होगा कि हर पुरूष भी शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि के आधार पर समान नहीं होता। अतः इस सच्चाई को स्वीकार करके चलना पडे़गा कि जैविक दृष्टि से इस जगत में भेद व्याप्त है और इस अर्थ में लिंग भेद समाप्त नहीं किया जा सकता।

इसमें कोई शक नहीं कि लिंग-समता को बौद्धिक स्तर पर कोई भी खण्डित नहीं कर सकता। नर-नारी सृष्टि रूपी परिवार के दो पहिये हैं। तमाम देशों ने संविधान के माध्यम से इसे आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है पर जरूरत है कि नारी अपने हकों हेतु स्वयं आगे आये। मात्र नारी आन्दोलनों द्वारा पुरुषों के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण व्यक्त करने से कुछ नहीं होगा। पुरूषों को भी यह धारणा त्यागनी होगी कि नारी को बराबरी का अधिकार दे दिया गया तो हमारा वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। उन्हें यह समझना होगा कि यदि नारियाँ बराबर की भागीदार बनीं तो उन पर पड़ने वाले तमाम अतिरिक्त बोझ समाप्त हो जायेंगे और वे तनावमुक्त होकर जी सकेंगे। यह नर-नारी समता का एक सुसंगत एवं आदर्श रूप होगा ।