समर्थक / Followers

बुधवार, 27 नवंबर 2013

दाम्पत्य और रचनाधर्मिता की युगलबंदी





सृष्टि  में नव-रत्नों की  बड़ी महिमा गाई गई है और हम भी अपने जीवन में नौ अंक के बहुत करीब हैं. 28 नवम्बर का दिन हमारे जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान  है.  28 नवम्बर, 2013  को हमारी (कृष्ण कुमार यादव-आकांक्षा यादव) शादी की 9 वीं सालगिरह है। दाम्पत्य के साथ-साथ साहित्य और ब्लागिंग में भी सम्मिलित सृजनशीलता की युगलबंदी करते हुए जीवन के इस सफ़र में दिन, महीने और फिर साल कितनी तेजी से पंख लगाकर उड़ते चले गए, पता ही नहीं चला। आज हम वैवाहिक जीवन के 9  वर्ष पूरे करके 10 वें वर्ष में प्रवेश करेंगें। वैसे भी 9 हमारा पसंदीदा नंबर है।


जीवन के इस प्रवाह में सुख-दुःख के बीच सफलता के तमाम आयाम हमने एक साथ छुए. कभी जिंदगी सरपट दौड़ती तो कई बार ब्रेक लग जाता. एक-दूसरे के साथ बिताये गए ये नौ साल सिर्फ इसलिए नहीं महत्वपूर्ण हैं कि हमने जीवन-साथी के संबंधों का दायित्व प्रेमपूर्वक निभाया, बल्कि इसलिए भी कि हमने एक-दूसरे को समझा, सराहा और संबल दिया. अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि प्रशासनिक व्यस्तताओं के बीच कैसे समय निकल लेते हैं तो इसके पीछे आकांक्षा जी का ही हाथ है. यदि उन्होंने मेरी रचनात्मकता को सपोर्ट नहीं किया होता तो मैं आज एक अदद सिविल सर्वेंट मात्र होता, लेखक-कवि-साहित्यकार के तमगे मेरे साथ नहीं लगे रहते. यह हमारा सौभाग्य है कि हम दोनों साहित्य प्रेमी हैं और कई सामान रुचियों के कारण कई मुद्दों पर खुला संवाद भी कर लेते हैं। एक-दूसरे की रचनात्मकता को सपोर्ट करते हुए ही आज हम इस मुकाम पर हैं...!!









मंगलवार, 26 नवंबर 2013

चुनावी बेला में 'मताधिकार'



लोकतंत्र की इस चकरघिन्नी में
पिसता जाता है आम आदमी
सुबह से शाम तक
भरी धूप में कतार लगाये
वह बाट जोहता है
अपने मताधिकार का
वह जानता भी नहीं
अपने इस अधिकार का मतलब
बस एक औपचारिकता है
जिसे वह पूरी कर आता है
और इस औपचारिकता के बदले
दे देता है अधिकार
चंद लोगों को
अपने ऊपर
राज करने का
जो अपने हिसाब से
इस मताधिकार का अर्थ निकालते हैं
और फिर छोड़ देते हैं
आम आदमी को
इंतजार करने के लिए
अगले मताधिकार का।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

दीपावली पर पटाखे नहीं, दीये जलाएँ

दीपावली भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका बेसब्री से इंतजार किया जाता है। दीपावली माने ''दीपकों की पंक्ति'' । दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि रावण- वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ चैदह वर्षों के वनवास पश्चात  अयोध्या वापस लौटे  थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को  दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। 

वक्त के साथ दीपावली का स्वरूप भी बदला है। पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। पर वर्तमान में जिस प्रकार बल्बों और झालरों का प्रचलन बढ़ रहा है, वह दीपावली के परम्परागत स्वरूप के ठीक उलटा है। 

समाज में अपनी हैसियत दिखाने हेतु एवं प्रदर्शन करने हेतु करोड़ों रुपये के पटाखे लोग जला डालते है तो दूसरी ओर न जाने  कितने लोग सिर्फ एक समय का खाना खाकर पूरा दिन बिता देते हैं। एक अनुमानानुसार हर साल दीपावली की रात पूरे देश में करीब तीन हजार करोड़  रूपये के पटाखे जला दिए जाते हैं और करोड़ों रूपये जुए में लुटा दिए जाते हैं। क्या हमारी अंतश्चेतना यह नहीं कहती कि करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ने के बजाय भूखे-नंगे लोगों हेतु कुछ प्रबन्ध किए जायें? क्या पटाखे फोड़कर  हम पर्यावरण को प्रदूषित नहीं कर रहे हैं? 

निश्चिततः इन सभी प्रश्नों का जवाब अगर समय रहते नहीं दिया गया तो अगली पीढि़याँ शायद त्यौहारों की वास्तविक परिभाषा ही भूल जायें।  दीपावली दीये  का त्यौहार  है न कि पटाखों का। अत: दीपावली पर दीये जलाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखें, न कि पटाखों और आतिशबाजी द्वारा इसे प्रदूषित करें ..दीपावली पर्व पर आप सभी को शुभकामनाएँ !!