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शनिवार, 27 जून 2009

अनूभूतियाँ और विमर्श: विविध सरोकारों के रंगचित्र

हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने निबन्ध विधा को गद्य का सर्वोकृष्ट स्वरूप माना है। आचार्य पं0 रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में-’’यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है।’’ वस्तुतः निबन्ध गद्य का अत्यन्त सशक्त रूपविधान है। डाॅ0 जे0 डब्ल्यू0 मेरियट और फ्रांसीसी समालोचक सान्तवे यह स्वीकार करते हैं कि- ’’निबन्ध-रचना एक कठिन कार्य है और ऐसी अवस्था में किसी भी विषय पर निबन्ध लिखने के लिए उस विषय का पूर्ण पण्डित होना चाहिए।’’ इससे स्पष्ट है कि सफल और श्रेष्ठ निबन्ध लिखना अतन्य दुष्कर कार्य है। हर्ष की बात है कि भारतेन्दु युग से अब तक अनेक साहित्यकारों ने इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी एवं कवि व चिन्तक कृष्ण कुमार यादव का प्रस्तुत निबन्ध संग्रह अनूभूतियाँं और विमर्श’ इस दिशा में किया गया, एक अच्छा प्रयास माना जाएगा, जिसमें लेखक की जिज्ञासु प्रवृत्ति, समसामयिक संदर्भों को समझने की चेष्टा, ऐतिहासिक संदर्भों के यथोचित प्रयोग, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति अनुराग एवं तथ्यों को सही ढंग से प्रयुक्त कर उनका विश्लेषणात्मक विवेचन करने की रुचि के दर्शन होते हैं। प्रशासनिक सेवा में रहकर चिन्तन मनन करना एवं साहित्यिक लेखन करना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है। राजकीय सेवा के दायित्वों का निर्वहन और श्रेष्ठ कृतियों की सर्जना का यह मणि-कंाचन योग विरल है। कृष्ण कुमार यादव के निबन्धों में उनका बहुआयामी चिन्तन मुखर हुआ है।

संग्रह के निबन्धों को स्वयं लेखक ने तीन खण्डों में विभक्त करते हुए लिखा है कि प्रस्तुत निबन्ध-संग्रह के लेखों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है- व्यक्तित्व विशेष पर आधारित लेख, संस्कृति के प्रतिमानों पर आधारित लेख एवम् समसामयिक मुद्दों पर आधारित लेख। प्रेमचन्द, राहुल सांकृत्यायन, मनोहर श्याम जोशी, अमृता प्रीतम और डा0 अम्बेडकर पर लिखे लेख जहाँ इनके व्यक्तिगत जीवन पर प्रकाश डालते हुए भारतीय समाज को इनके अवदानों से अवगत कराते हैं, वहीं नारी शक्ति का उत्कर्ष, इतिहास के आयाम, भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता, भारतीय संस्कृति और त्यौहारों के रंग, भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी जैसे लेख भारतीय संस्कृति के विभिन्न प्रतिमानों को ग्राह्य करते नजर आते हैं। अन्य लेखों को समसामयिक संदर्भों में रखा जा सकता है। मेरी दृष्टि में संग्रह के प्रथम खण्ड के लेख श्रद्धा भाव, द्वितीय खण्ड के लेख समीक्षक भाव तथा व तृतीय खण्ड के लेख प्रशिक्षक-भावना से प्रेरित होकर लिखे गये हैं। इसलिए ये निबन्ध जहाँ एक ओर लेखक की अध्ययनशीलता और उसकी विश्लेषाणात्मक दृष्टि को रेखांकित करते हैं वहीं दूसरी ओर उसके समीक्षक स्वरूप की भी झांकी प्रस्तुत करते हैं।
’प्रेमचन्द के सामाजिक व साहित्यक विमर्श’ निबन्ध में लेखक की यह दृष्टि कि यह एक रोचक तथ्य है कि प्रेमचन्द जिस दौर के थे वह दौर खुलकर स्वतंत्रता-आन्दोलन में भाग लेने का था पर उनकी कलम समाज की आन्तरिक विसंगतियों और बुराईयों पर ही ज्यादा चली जिसे कि आधुनिक साहित्य में दलित विमर्श, नारी-विमर्श इत्यादि के रूप में देखा जा सकता है, सर्वथा उचित कही जाएगी। हिन्दू और मुसलमान की एकता विषयक प्रेमचन्द के विचारों को आज भी परखा जा सकता है। उन्होंने लिखा है-’हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न होंगे और न ही होने चाहिए। दोनों की पृथक-पृथक सूरतें बनी रहनी चाहिए और बनी रहेंगी।’ लेखक की यह अवधारणा कि प्रेमचन्द के लेखों में दक्षिण पंथी-मध्यमार्गी-वामपंथी सभी धारायें फूटकर सामने आती हैं, एक कटु सत्य है। लेख प्रभावपूर्ण है।
यायावरी वृत्ति के सबल सम्पोषक राहुल सांकृत्यायन की बहुमूल्य कृति ’भागो नहीं दुनिया को बदलो’ की तर्ज पर ही लेखक ने अपने द्वितीय निबन्ध का शीर्षक रखा है। उनके रचना-संसार का उल्लेख करते हुए लेखक ने स्पष्ट किया है कि ’छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल जी ने लगभग सभी प्रमुख विधाओं में साहित्य सृजन किया है, जिसमें अधिकांश हिन्दी भाषा में लिखा गया है।’ राहुल जी के समग्र जीवन का मूल्यांकन करते हुए निबन्धकार ने बहुत सही टिप्पणी करते हुए लिखा है-’वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया।’ उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। लेख में अनेक अनकहे तथ्यों को उद्घाटित करने का अच्छा प्रयास किया गया है।

’खो गया किस्सागोई’ निबन्ध में लेखक ने मनोहर श्याम जोशी के सम्बन्ध में लिखा है-’जोशी जी ने अमृतलाल नागर से भाषा और किस्सागोई सीखी है। इसी प्रकार भगवतीचरण वर्मा से तुर्शी तो यशपाल से नजरिया सीखा है। उनके लेखन की विशिष्टताओं को सूक्ष्म रूप में दो शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है-’साधारण चरित्रों का अद्भुतिकरण और अद्भुत चरित्रों का सामान्य विश्लेषण उनकी विशेषता रही है। लेखक ने अमृता प्रीतम के आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ’रसीदी टिकट’ से प्रभावित हो कर उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भावविभोर होकर ‘गुम हो गया रसीदी टिकट’ लेख में किया है। देश के बँटवारे के दर्द को अमृता जी के शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया गया है- ’’पुराने इतिहास के भीषण अत्याचारी काण्ड हम लोगों ने भले ही पढ़े हुए थे, पर फिर भी हमारे देश के बँटवारे के समय जो कुछ हुआ, किसी की कल्पना में भी उस जैसा खूनी काण्ड नहीं आ सकता। मैंने लाशें देखी थीं, लाशों जैसे लोग देखे थे।’’ अमृताजी के जीवन की व्याख्या करते हुए लेखक ने एक वाक्य में उनका वास्तविक चित्र उभारने का सराहनीय प्रयास किया है। लेखक के शब्दों में-’एक ही साथ मानवतावादी, अस्तित्ववादी, स्त्रीवादी और आधुनिकतावादी थीं।’ ‘दलितों के मसीहा: डा0 अम्बेडकर’ इस खण्ड का अन्तिम लेख है। इसमें लेखक ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि लगभग सौ वर्ष पूर्व समाज में अस्पृश्यता आदि की जो पीड़ दलितों को झेलनी पड़ती थी वह बालक अम्बेडकर को भी झेलनी पड़ी थी। कालान्तर में डा0 अम्बेडकर एक योग्य पुरुष बने और अपनी योग्यता के बल पर संविधान निर्माण में अपनी अहम् भूमिका का निर्वहन किया। लेख अम्बेडकर जी के जीवन पर अच्छा प्रकाश डालता है। डा0 अम्बेडकर के अन्तर्विरोधों पर चर्चा के साथ-साथ वर्तमान राजनैतिक-सामाजिक परिवेश में जिस प्रकार उन्हें भुनाया जा रहा है, उस पर भी चर्चा करके इस लेख को और भी आयाम दिये जा सकते थे।

निबन्ध-संग्रह के द्वितीय खण्ड के ’नारी शक्ति के उत्कर्ष’ लेख में लेखक ने जहाँ एक ओर नारी की महिमा-गरिमा प्रतिपादित की है वहीं दूसरी ओर नारी की कमियों की ओर भी संकेत किया है। महाकवि तुलसीदास की एक अद्र्धाली का उल्लेख करते हुए लेखक ने ‘ताड़ना’ शब्द की जो व्याख्या की है वह उचित नहीं प्रतीत होती। ताड़ना शब्द का वास्तविक अर्थ ग्रहण करते हुए इसकी व्याख्या उचित होगी। फिर संत कवि तुलसीदास ही क्यों, महाकवि संत प्रवर कबीरदास तथा सूरदास ने नारी के सम्बन्ध में बहुत सी कटु उक्तियों का प्रयोग किया है क्योंकि नारी को साधना पथ पर बाधक माना गया है। इतिहास के आयाम लेख में लेखक ने इतिहासकारों की भूलों तथा इतिहास को देखने की उनकी दृष्टि की विस्तार से चर्चा की है। इतिहास की कमियों को उदाहरणों द्वारा अच्छे ढंग से दर्शाया गया है।

‘भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता’ विषयक लेख में पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों द्वारा की गयी व्याख्याओं का अंकन करते हुए लेखक ने दोनों का अन्तर सुस्पष्ट करते हुए ठीक ही लिखा है कि जहाँ पाश्चात्य धर्मनिरपेक्षता धर्म और आध्यात्मिक परम्परा की अवहेलना करती है, वहीं भारतीय समाज प्राचीन आध्यात्मिक परम्परा को स्वीकार करते हुए सभी धर्मों के प्रति सहनशील होना तथा उन सबका समान रूप से आदर करना ही धर्मनिरपेक्षता मानता है। लेख पाठक के लिए चिंतन के कई बिन्दु छोड़ जाता है। यही लेखक की उपलब्धि है।

भारतीय संस्कृति त्यौहारों एवं उत्सवों की संस्कृति है। उल्लास, उमंग, आशा, हर्ष इस संस्कृति का मूलाधार है। भारतीय संस्कृति की विशिष्टता यह है कि इसमें शोक का कोई त्यौहार नहीं होता है। लेखक ने दार्शनिक लाओत्से के शब्दों को दोहराते हुए लिखा है- ‘’इसकी फिक्र मत करो कि रीति-रिवाज का क्या अर्थ है? रीति-रिवाज मजा देता है बस काफी है। जिन्दगी को सरल और नैसर्गिक रहने दो, उस पर बड़ी व्याख्याएँ मत थोपो।’’ सम्पूर्ण लेख में मिथक, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े अनेक त्यौहारों, उत्सवों की विस्तार से सार्थक चर्चा की गयी है तथापि पोंगल आदि दक्षिणांचल और उत्तरांचल के त्यौहारों को जोड़कर इसे और भी रोचक बनाया जा सकता था। द्वितीय खण्ड का अन्तिम लेख है-’भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी’ लेखक का यह विचार समीचीन प्रतीत होता है कि भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, उन्नत प्रौद्योगिकी एवं सूचना-तकनीेक के बढ़ते इस युग में सबसे बड़ा खतरा भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पैदा हुआ है। आज अंग्रेजी हिन्दी की प्रतिद्वन्दी बन गई है। लेखक का इस बिन्दु पर क्षुब्ध होना उचित है कि राजभाषा का दर्जा प्राप्त होने पर भी हिन्दी आज राजभाषा नहीं बन सकी। वस्तुतः विदेश में हिन्दी अपने बलबूते पर बढ़ रही है, किन्तु अपने देश में वह उपेक्षा का शिकार हो रही है। यह स्थिति चिन्ताजनक है।

निबन्ध-संग्रह के तृतीय खण्ड में लेखक ने जिन समसामयिक सरोकारों से जुड़े निबन्धों को संजोया है, वे हैं- युवा भटकाव की स्थिति क्यों, भूमण्डलीकरण के दौर में तेजी से बढ़ते भारतीय कदम, ब्राण्ड इमेज की महत्ता, इण्टरनेट का बढ़ता प्रभाव तथा कोचिंग संस्थाओं का फैलता मायाजाल। ये सभी निबन्ध समसामयिक सन्दर्भों से जुड़े होने के कारण प्रतियोगी परीक्षाओं और विशेषकर सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रहे छात्रों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होंगे। सभी लेख पाठकों का ज्ञानवर्द्धन करते हैं।
कृति में संकलित निबन्ध जहाँ एक ओर लेेखक की अध्ययनशीलता, अनुभूति की गहराई, सूक्ष्म निरीक्षण की शक्ति का परिचय कराते हैं, वहीं दूसरी ओर उसकी वर्णन-शैली की प्रभावोत्पादकता को भी परिलक्षित करते हैं। अभिव्यक्ति को प्रभावपूर्ण बनाने में लेखक का अंग्रेजी-मोह भी मुखर हो उठता है। भावों को गुम्फित करते समय निबन्धकार के व्यक्तित्व का गाम्भीर्य कहीं-कहीं साथ छोड़ देता है। अधिकांश निबन्ध व्यास शैली में लिखे गये हैं। फलतः कोई-कोई निबन्ध अधिक विस्तार पा गया है। मेरी दृष्टि में मूल विषय की गरिमा बनाये रखना इन निबन्धों की विशिष्टता है, जो लेखक के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत करती है।

पुस्तक : अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह)/ लेखकः कृष्ण कुमार यादव/ मूल्य: 250/- /प्रकाशन वर्ष : 2007 / प्रकाशक: नागरिक उत्तर प्रदेश, प्लाट नं0 2, नन्दगाँव रिजार्टस्, तिवारीगंज, फैजाबाद रोड, लखनऊ-226019 / समीक्षक: उमाशंकर शुक्ल ’उमेश’, साहित्य सदन, फूलपुर, इलाहाबाद
(इस संग्रह की एक समीक्षा "रचनाकार" पर भी देखें)

शुक्रवार, 26 जून 2009

'राष्ट्रीय सहारा' में 'महफिले शेरो सुखन' के अंतर्गत कृष्ण कुमार यादव की चर्चा

26 जून, 2009 के राष्ट्रीय सहारा अख़बार में लोकप्रिय स्तम्भ 'महफिले शेरो सुखन' के अर्न्तगत मेरी कविताओं पर संपादक नवोदित जी ने चर्चा की ! इसके लिए उनका आभार! ...और आपकी शुभकामनाओं की अपेक्षा !!

व्यक्ति, समाज, साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बंधों की पड़ताल करता निबंध संग्रह

‘‘अभिव्यक्तियों के बहाने‘‘ कृष्ण कुमार यादव का प्रथम निबंध संग्रह है। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी रूप में पदस्थ श्री यादव अपनी व्यस्तताओं के बीच भी सामाजिक-साहित्यिक सरोकारों से कटे नहीं हैं बल्कि उन्हें आत्मसात् करते हुए पन्नों पर उभारने में भी माहिर हैं। सुकरात ने ऐसे लोगों के लिए ही लिखा था कि-‘‘सर्वगुणसम्पन्न और सच्चे अर्थों में शिक्षित वही लोग माने जायेंगे जो सफलता मिलने पर बिगड़ते नहीं, जो अपनी असलियत से मुँह नहीं मोड़ते; साथ ही बुद्धिमान और धीर-गम्भीर व्यक्ति की तरह दृढ़ता से जमीन पर पैर जमाये रखते हैं।‘‘ साहित्य में उसी दृष्टि को संपन्न माना जाता है, जो अपने समय की सभी प्रवृत्तियों को अपने साहित्य में स्थान दे और उनके साथ समुचित न्याय करे। कृष्ण कुमार चूँकि अभी युवा हैं, अतः उनकी सोच में नवीनता एवं ताजगी है।

समालोच्य निबंध संग्रह में कुल 10 लेख/निबंध प्रस्तुत किये गये हैं। भारतीय जीवन, समाज, साहित्य और राजनीति के अंतर्सूयों से आबद्ध इन लेखों में तेजी से बदलते समय और समाज की धड़कन को महसूस किया जा सकता है। संग्रह का प्रथम लेख ‘‘बदलते दौर में साहित्य की भूमिका‘‘ समकालीन परिवेश में साहित्य और इसमें आए बदलाव को बखूबी रेखांकित करता है। नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, बाल-विमर्श जैसे तमाम तत्वों को सहेजते इस लेख की पंक्तियाँ गौरतलब हैं- ‘‘रचनाकार को संवेदना के उच्च स्तर को जीवंत रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप से जोड़कर देखना चाहिए एवं अपने सत्य व समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये।’’ इसी प्रकार ‘‘बाल-साहित्य: दशा और दिशा‘‘ में लेखक ने बच्चों की मनोवैज्ञानिक समस्याओं और उनकी मनोभावनाओं को भी बाल साहित्य में उभारने पर जोर दिया है।
आज लोकतंत्र मात्र एक शासन-प्रणाली नहीं वरन् वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है। कृष्ण कुमार यादव की नजर इस पर भी गई है। ‘‘लोकतंत्र के आयाम‘‘ लेख में भारतीय लोकतंत्र के गतिशील यथार्थ की सच्ची तस्वीर देखी जा सकती है। किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित हुए बिना भारतीय समाज के पूरे ताने-बाने को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि इस लेख को महत्वपूर्ण बना देती है। सत्य-असत्य, सभ्यता के आरम्भ से ही धर्म एवं दर्शन के केद्र-बिंदु बने हुये हैं। महात्मा गाँधी, जिन्हें सत्य का सबसे बड़ा व्यवहारवादी उपासक माना जाता है ने सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची कहा। भारत सरकार के राजकीय चिन्ह अशोक-चक्र के नीचे लिखा ‘सत्यमेव जयते’ शासन एवं प्रशासन की शुचिता का प्रतीक है। यह हर भारतीय को अहसास दिलाता है कि सत्य हमारे लिये एक तथ्य नहीं वरन् हमारी संस्कृति का सार है। इस भावना को सहेजता लेख ‘‘सत्यमेव जयते‘‘ बड़ा प्रभावी लेख है। एक अन्य लेख में लेखक ने प्रयाग के महात्मय का वर्णन करते हुए इलाहाबाद के राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित किया है। इसमें इतिहास और स्मृति एक दूसरे के साथ-साथ चलते हुए नजर आते हैं।
सृष्टि का चक्र चलाने वाली, एक उन्नत समाज बनाने वाली, शक्ति, ममता, साहस, सौर्य, ज्ञान, दया का पुंज है नारी। एक तरफ वह यशोदा है, तो दूसरी तरफ चण्डी भी। आज महिलायें समुद्र की गहराई और आसमान की ऊँचाई नाप रही हैं। ‘‘रूढ़ियों की जकड़बन्द तोड़ती नारियाँ‘‘ ऐसी नारियों का जिक्र करती है जो फेमिनिस्ट के रूप में किन्हीं नारी आन्दोलनों से नहीं जुड़ी हैं। कर्मकाण्डों में पुरूषों को पीछे छोड़कर पुरोहिती करने वाली, माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने वाले ऐसे तमाम कार्य जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है, आज महिलायें खुद कर रही हैं। आजादी के दौर में भी कुछ महापुरूषों ने इन रूढ़िगत मान्यताओं के विरूद्ध आवाज उठाई थी पर अब महिलायें सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रही हैं वरन् इन रूढ़िगत मान्यताओं को पीछे ढकेलकर नये मानदण्ड भी स्थापित कर रही हैं। इसी क्रम में ‘‘लिंग समता: एक विश्लेषण‘‘ नामक लेख पुरूष व महिलाओं के बीच जैविक विभेद को स्वीकार करते हुए सामंजस्य स्थापित करने और तद्नुसार सभ्यता के विकास हेतु कार्य करने की बात करता है।
कोई भी लेखक या साहित्यकार अपने समय की घटनाओं और उथल-पुथल के माहौल से प्रेरित होकर साहित्य की रचना करता है। कृष्ण कुमार भारतीय संस्कृति, उसके जीवन मूल्यों और माटी की गंध को रोम-रोम में महसूस करते हैं। आज हमारी लोक-संस्कृति व विरासत पर चैतरफा दबाव है और बाजारवाद के कारण वह संकट में है। ऐसे में लेखक भारतीय संस्कृति और उसकी विरासत का पहरूआ बनकर सामने आता है। अपने लेख ‘‘शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत‘‘ में कृष्ण कुमार जब लिखते हैं- ‘‘वस्तुतः हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं‘‘, तो उनसे असहमति जताना बड़ा कठिन हो जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ का पाठ पढ़ाने वाली भारतीय संस्कृति सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव की हिमायती रही हैं। आज जातिवाद, सम्प्रदायवाद की आड़ में जब इस पर हमले हो रहे हैं तो युवा लेखक की लेखनी इससे अछूती नहीं रहती। बचपन से ही एक दूसरे के धर्मग्रंथों और धर्मस्थानों के प्रति आदर का भाव पैदा करके अगली पीढ़ियों को इस विसंगति से दूर रखने की सलाह देने वाले लेख ‘‘साम्प्रदायिकता बनाम सामाजिक सद्भाव‘‘ में समाहित उदाहरण इसे समसामयिक बनाते हैं।
आज की नई पीढ़ी महात्मा गाँधी को एक सन्त के रूप में नहीं बल्कि व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। महात्मा गाँधी पर प्रस्तुत लेख ‘‘समग्र विश्वधारा में व्याप्त हैं महात्मा गाँधी‘‘ उनके जीवन-प्रसंगों पर रोचक रूप में प्रकाश डालते हुए समकालीन परिवेश में उनके विचारों की प्रासंगिकता को पुनः सिद्ध करता है। वस्तुतः गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हंै।
साहित्य रचना केवल एक कला ही नहीं है बल्कि उसके सामाजिक दायित्व का दायरा भी काफी बड़ा होता है। यही कारण है कि साहित्य हमारे जाने-पहचाने संसार के समानांतर एक दूसरे संसार की रचना करता है और हमारे समय में हस्तक्षेप भी करता है। ऐसे में व्यक्ति, समाज, साहित्य और राजनीति के अन्तर्सम्बधों की संश्लिष्टता को पहचान कर उसे मौजूदा दौर के परिपे्रक्ष्य में जाँचना-परखना कोई मामूली चुनौती नहीं। कृष्ण कुमार यादव मूकदृष्टा बनकर चीजों को देखने की बजाय भाषा की स्वाभाविक सहजता के साथ इन चुनौतियों का सामना करते हैं, जिसका प्रतिरूप उनका यह प्रथम निबंध-संग्रह है। कृष्ण कुमार यादव की यह पुस्तक पढ़कर जीवंतता एवं ताजगी का अहसास होता है।

पुस्तक: अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह)/ लेखकः कृष्ण कुमार यादव/ मूल्य: 150/- प्रकाशक: शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर / प्रकाशन वर्ष : 2006 / समीक्षक: गोवर्धन यादव, 103- कावेरी नगर, छिंदवाड़ा (म0प्र0)-४८०००१

(साभार : सृजनगाथा, नवम्बर 2008)

बुधवार, 24 जून 2009

अभिलाषा: जागरूक संवेदना की कविताएं

मनुष्य को अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिन्तन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है। जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौन्दर्य के दर्शन होते हंै तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है। युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलम्बनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयास किया है। मुक्त छन्द के इस कविता संग्रह में कुल 88 कविताएं संकलित हैं।

कृष्ण कुमार ने अपने इस संग्रह में विषय-विशेष की कविताओं को अलग-अलग खंडों में रखा है। यथा-माँ, प्रेयसी, नारी, ईश्वर, बचपन, एकाकीपन, दतर, प्रकृति, मूल्य एवं विसंगतियाँ, सम्बन्ध, समकालीन और विविध। इन विषयों को उठाकर कवि ने समग्रता का प्रमाण देने के साथ-साथ कालखंड को भी प्रस्तुत करने का व्यापक प्रयास किया है। बकौल गोपालदास नीरज कृष्ण कुमार व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ कवि हैं जो वर्तमान परिवेश की विदू्रपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखंडों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।अभिलाषा का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों, बाल विमर्श, स्त्री विमर्श एवं जड़ व्यवस्था व प्रशासनिक रवैये ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं।

कृष्ण कुमार यादव ने अपने संकलन में कविता को पारिभाषित किया है- कविता है वेदना की अभिव्यक्ति/कविता है एक विचार/कविता है प्रकृति की सहचरीे/कविता है क्रान्ति की नजीर/कविता है शोषितों की आवाज/कविता है रसिकों का साज/कविता है सृष्टि और प्रलय का निर्माण/कविता है मोक्ष और निर्वाण/कभी यथार्थ, तो कभी कल्पना के आगोश में/कविता इस ब्रह्माण्ड से भी आगे है। निश्चिततः ये पंक्तियाँ कवि की तमाम कविताओं की भाव-भूमि का खुलासा करने में नितांत सक्षम हैं। ‘अभिलाषा’ का प्रथम खंड माँ को समर्पित है। माँ के ममत्व भरे भाव की स्नेहिल अभिव्यक्ति पर कवि ने कुल पाँच कवितायें लिखी हैं, जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न किया है। कवि की जीवन स्मृतियों में माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है- कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखौं से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई। किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धानावृत्त आँचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है। कवि की ष्माँष् के प्रति भावनायंे अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौन्दर्य बन जाती हंै। इन पंक्तियों को देखें- मेरा प्यारा सा बच्चा/गोद में भर लेती है बच्चे को/चेहरे पर नजर न लगे/माथे पर काजल का टीका लगाती है/कोई बुरी आत्मा न छू सके/बाँहों में ताबीज बांध देती है। कवि की माँ को समर्पित एक अन्य रचना की पंक्तियाँ हैं -जो बच्चे अच्छे काम करते हैं/उनके सपनों में परी आती/और देकर चली जाती चाकलेट/मुझे क्या पता था/वो परी कोई और नहीं/माँ ही थी।
अपनी वय के अनुसार बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है वह नारी और प्रेयसी के विभिन्न रुपों को महसूस करता है, यहाँ तक कि प्रकृति भी उसे प्रेयसी लगती है। कवि ने बड़ी ही सहजता और खूबसूरती के साथ भावों को अभिव्यक्त करते हुए अपने प्रकृति प्रेमी होने का प्रमाण दिया है। कवि ने प्रेम व प्रेयसी पर कुल दस कविताएं लिखी हैं-सद्यःस्नात सी लगती हैं/हर रोज सूरज की किरणें/आगोश में भर शरीर को/दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे/और मजबूर कर देती हैं/अंगड़ाईयाँ लेने के लिए/मानो सज धज कर/तैयार बैठी हों/अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए। कवि की कलम सती प्रथा जैसी कुरीति पर चली है तो नारी अधिकारों की माँग के बहाने स्त्री विमर्श को भी उसने छुआ है। ‘बेटी के कर्तव्य’ कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें- पर यह क्या/बेटी तो कर्तव्यों के साथ/अपने अधिकार भी पूछ बैठी/पर माँ उसे कैसे समझाये/उसने तो इस शब्द का/अर्थ ही नहीं जाना था/पति ने जो कह दिया/उसे पूरा करना ही/अपना जीवन समझ बैठी/फिर कैसे समझाये उसे/अधिकारों का अर्थ।

कृष्ण कुमार यादव की कविताओं में परा और अपरा जीवन दर्शन की भी चर्चा की गई है। ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा। कवि का मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है। कवि ने ईश्वर के लिए लिखा हैै-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हँू, कर्तव्य में हँू /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढँूढते हुए मुझे। कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अन्दर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है।

बाल विमर्श कवि की कुछ कविताओं का प्रमुख तत्व है, जिनमें बच्चों के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारा गया है। जूतों में पालिश करता बच्चा, दंगों में मृत माँ के स्तनों को मुँह में लगाये बच्चा, क्लोन, दुधमुँहा बच्चा और धर्म के खांचों में बंटते बच्चों पर लिखी कविताएं कवि की बाल मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ की परिचायक हैं-खामोश व वीरान सी आंखें/आस-पास कुछ ढूढ़ती हैं/पर हाथ मंे आता है/सिर्फ मांँस का लोथड़ा/माँ की छाती समझ/वह लोथड़े को भी मुंह/लगा लेता है/मुँह में दूध की बजाय/खून भर आता है/लाशों के बीच/खून से सना मुँह लिए/एक मासूम का चेहरा/वह इस देश का भविष्य है।

कवि की रचनाओं का फलक अत्यन्त व्यापक है। वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशायें, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है। नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं। उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुद्ध तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता। वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है। कवि शहरी परिवेश के वावजूद गाँव एवं उससे जुड़ी स्मृतियों को विस्मृत नही करना चाहता। गाँव, गाँव की गलियाँ, पेड़, किसान, खेत, मेड़, मिट्टी, बादल, गौरैया, तितलियाँ, संगी-साथी इत्यादि कवि की कविताओं में सहज ही उभर आते हैं - खो जाता हूँ उस सोंधी मिट्टी में /वही गलियाँ, वही नीम, वही माँ, वही प्यार/शायद दूर कहीं कोई पुकारता है मुझे। यद्यपि ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित अनेकों कविताएं पूर्ववर्ती कवियों द्वारा लिखी गयी हैं मगर यहाँ पर साम्राज्यवादी ताकतों से टक्कर लेती एक ग्रामीण महिला की सोच को कवि की चैंकाने वाली पंक्तियाँ माना जा सकता है-गाँव की एक अनपढ़ महिला/ने मुझसे पूछा/सुना है, अमरीका ने/आटा चक्की का पेटेंट/करा लिया है/ऐसा कैसे हो सकता है/यह तो हमारे पुरखों की अमानत है।

कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी। मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता। उसके साथ समाज रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। मन के सुुकुमार भावों के स्पन्दन, कविता की किलकारियों के रूप में स्वतः ही गूंज उठे हैं। कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कहीं कोई मलाल नहीं और न ही दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव परिलक्षित होता है। अभिलाषा संग्रह की कविताएं वाकई एक नए पथ का निर्माण करती हैं, जहाँ अत्यधिक उपमानों, भौतिकता, व दुरूहता की बजाय स्वाभाविकता, समाजनिष्ठा एवं जागरुक संवेदना है, जो कि कविता की लय बचाने हेतु जरूरी है। कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ‘‘अभिलाषा’’ की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हंै।

वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि कवि को विपुल साहित्यिक ऊर्जा सम्पन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिन्दी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे।निश्चितत: कृष्ण कुमार यादव का यह पहला काव्य संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है।
समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)/कवि- कृष्ण कुमार यादव/प्रकाशक- शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर पृष्ठ- 144, मूल्य- 160 रुपये/ प्रकाशन वर्ष- 2005/समीक्षक-गोवर्धन यादव 103, कावेरी नगर, छिंदवाड़ा (म0प्र0)-480001

(साभार: कथाबिम्ब, त्रैमासिक पत्रिका, मुम्बई, अप्रैल-जून 2006)

मंगलवार, 23 जून 2009

अमर उजाला में 'शब्द सृजन की ओर' ब्लॉग की चर्चा

''शब्द सृजन की ओर'' पर 19 जून 2009 को प्रस्तुत पोस्ट "समोसा हुआ 1000 साल का" को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'अमर उजाला' ने 23 जून 2009 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर 'ब्लॉग कोना' में स्थान दिया! ... आभार!!

सोमवार, 22 जून 2009

भारतीय साहित्य में कानपुर के योगदान पर गोष्ठी

कानपुर सिर्फ एक नगर का नाम नहीं है, बल्कि सभ्यता-संस्कृति-साहित्य की लम्बी परम्परा का नाम है। इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए होरी एवं यूएसएम पत्रिका के तत्वाधान में मर्चेंट चेम्बर्स सभागार, कानपुर में 21 जून, 2009 को ‘‘भारतीय साहित्य में कानपुर क्षेत्र का योगदान‘‘ विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। गौरतलब है कि आदि कवि बाल्मीकि द्वारा बिठूर में रचित रामायण, कवि भूषण, बीरबल से लेकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रताप नारायण मिश्र, गया प्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’, जगदम्बा प्रसाद ‘हितैषी’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हसरत मोहानी, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद‘, भगवती चरण वर्मा की गौरवशाली विद्वत परम्परा यहीं की देन है। साहित्य के तमाम दिग्गजों ने विभिन्न क्षेत्रों से आकर कानपुर को अपनी कर्मभूमि बनाया तो यहाँ के तमाम साहित्यकार-पत्रकार देश भर में घूम-घूम कर अलख जगाते रहे।


मुख्य वक्ता के रूप में चर्चित कथाकार पद्मश्री गिरिराज किशोर ने कानपुर में साहित्य एवं पत्रकारिता की परम्परा पर विस्तृत प्रकाश डाला एवं युवा पीढ़ी को इनसे जोड़ने की अपील की। उन्होंने कानपुर के साहित्यिक इतिहास को उद्धृत करते हुए कहा कि यह शहर बालकृष्ण शर्मा नवीन, सनेही जी, गणेश शंकर विद्यार्थी एवं पार्षद जी जैसी विभूतियों का है पर हमारी नई पीढ़ी इनके कार्यों को आगे बढ़ाने में सफल नहीं रही। उन्होंने कहा कि इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस जैसे शहरों की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली कालजयी रचनाएं भला कौन नहीं जानता होगा, पर कानपुर दुर्भाग्यशाली ही रहा। मूर्धन्य साहित्यकारों और पत्रकारों के शहर का होने के बाद भी अब तक कानपुर (कम्पू) पर कालजयी रचना प्रकाशित नहीं हुई। मुख्य अतिथि एवं कबीर शांति मिशन के संस्थापक राकेश कुमार मित्तल, आई0ए0एस0 ने साहित्य की प्रत्येक विधा में कानपुर के योगदान को सराहा और जीवन मूल्यों की स्थापना में साहित्य के अप्रतिम योगदान की चर्चा की। अध्यक्षता कर रहे राष्ट्रभाषा प्रचार समिति- उत्तर प्रदेश के संयोजक व मानस संगम के संयोजक पं0 बद्री नारायण तिवारी ने कानपुर की गौरवशाली परम्परा को दोहराते हुए कहा कि नगर के साहित्य ने वैश्विक पहचान बनाई है। जरूरत इसके प्रचार-प्रसार की है। उन्होंने इस कड़ी में नगर में मानस संगम द्वारा स्थापित शहीद उपवन की भी चर्चा की, जिसके माध्यम से क्रान्तिकारियों एवं क्रान्तिकारी रचनाओं को संजोया गया है।

संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए चर्चित युवा साहित्यकार एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि साहित्य की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है, जहाँ से संस्कृति की यात्रा और कानपुर आदिकाल से ही साहित्य एवं संस्कृति का प्रणेता रहा है। कानपुर में क्रान्तिकारी साहित्य को उद्धृत करते हुए श्री यादव ने कहा कि व्यवस्था बदलाव के लिए सियासी नारे की जरूरत नहीं होती, सियासी नारे तो हर साल बदल जाते हैं। जरूरत इन्सान की सोच बदलने की है और साहित्य यह सोच बदलने की काबिलियत रखता है। आकाशवाणी दिल्ली के निदेशक लक्ष्मीशंकर बाजपेई ने कानपुर के रचनाकारों की रचनाओं को विलुप्त होने से बचाने की बात कही तो कवयित्री व लेखिका डा0 प्रभा दीक्षित ने कानपुर के साहित्य में महिला लेखन एवं नारी विमर्श को आगे बढ़ाया। प्राचार्य एवं लेखक डा0 यतीन्द्र तिवारी ने साहित्य में कानपुर के ऐतिहासिक योगदान व डा0 सुरेश अवस्थी ने वर्तमान परिदृश्य पर चर्चा की। सूचना विभाग के उपनिदेशक अशोक बनर्जी ने साहित्य के साथ-साथ नौटंकी के क्षेत्र में कानपुर की विशिष्टता को उभारा तो अरूण प्रकाश अग्निहोत्री ने पुस्तक मेला की भूमिका रेखांकित की। डाॅ0 राष्ट्रबन्धु ने बाल साहित्य के क्षेत्र में कानपुर के अवदान की चर्चा करते हुए कहा कि हर रचनाकार मन से बाल साहित्यकार भी होता है। होरी पत्रिका के संपादक राज कुमार सचान ‘होरी‘ ने पूरी तरह कविता पर केन्द्रित पत्रिका के प्रकाशन के औचित्य व आज की आवश्यकता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि होरी में काव्य की सभी विधाओं और हिन्दी-उर्दू रचनाओं को एक साथ प्रकाशित कर भाषायी एकता को मजबूत बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

इस अवसर पर ‘कैरियर मानीटर‘ पाक्षिक समाचार पत्र के प्रवेशांक का लोकार्पण भी किया गया। होरी और यूएसएम पत्रिका पर परिचर्चा में डा0 गायत्री सिंह इत्यादि ने समीक्षात्मक टिप्पणियाँ की। मानस संगम व उत्कर्ष अकादमी द्वारा उमाशंकर मिश्र एवं राज कुमार सचान ‘होरी‘ का अभिनन्दन किया गया तो घाटमपुर पुखरांया नागरिक परिषद ने ‘होरी‘ को कवि कुलभूषण उपाधि दी। डा0 नारायणी शुक्ला ने सरस्वती गान द्वारा कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई तो 6 सगी अनवरी बहनों ने वन्देमातरम् वं राष्ट्रगान द्वारा कार्यक्रम में ओज भरा। यूएसएम पत्रिका के संपादक उमाशंकर मिश्र ने इस अवसर पर कानपुर पर एक विशेषांक निकालने की घोषणा की, जिसे नगर के साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा सराहा गया। मानस संगम, उत्कर्ष अकादमी एवं डा0 महमूद रहमानी के सौजन्य से आयोजित इस कार्यक्रम के अन्त में कानपुर के साहित्य को अपनी गरिमामयी साधना से गौरवान्वित करने हेतु साहित्यकारों-कलाकारों को सम्मानित किया गया। तात्याराव टोपे के वंशज विनायक राव टोपे का भी सम्मान किया गया। कार्यक्रम का संचालन उत्कर्ष अकादमी के निदेशक डा0 प्रदीप दीक्षित ने किया। इस अवसर पर दुर्गा चरण मिश्र, सत्यकाम पहारिया, मनोज सेंगर, अनिल दीक्षित, हिन्दुस्तान अकेला, कमल मुसद्दी, एस0पी0 सिंह, मुकुल नारायण तिवारी, पवन तिवारी, श्रीराम तिवारी, अभिनव नारायण तिवारी, गीता सिंह सहित तमाम साहित्यकार, पत्रकार, बुद्विजीवी एवं नागरिक जन उपस्थित रहे।

शुक्रवार, 19 जून 2009

समोसा हुआ 1000 साल का !!

समोसा भला किसे नहीं प्रिय होगा। समोसे का नाम आते ही दिल खुश हो जाता है और मुँह में पानी आ जाता है। विदेशियों के समक्ष भी भारतीय स्नैक्स की बात हो, तो समोसे के जिक्र के बिना बात अधूरी ही लगती है। यही कारण है कि जिस तरह भारतीयों में विदेशों से आए पिज्जा और बर्गर का क्रेज है, उसी प्रकार भारतीय समोसा भी विदेशों में फास्ट फूड के रूप में काफी प्रसिद्ध है। ऐसा कोई विरला ही दुर्भाग्यशाली व्यक्ति होगा जिसने समोसे का स्वाद न लिया हो। यहाँ तक कि फिल्मों और राजनीति में भी समोसे को लेकर तमाम जुमले हैं। लालू प्रसाद यादव को लेकर प्रचलित जुमला मशहूर है कि- ‘‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।‘‘ फिल्मों और राजनीति से परे तमाम साहित्यिक-सांस्कृतिक गोष्ठियां, सरकारी आयोजन एवं कोई भी कार्यक्रम समोसे के बिना अधूरा है। ऐसे में इस स्टड डीप फ्राई समोसे का स्वाद छोटे-बड़े सभी लोगों की जुबां पर है, तो हैरान होने की जरूरत नहीं।

समोसे के बारे में सबसे रोचक तथ्य यह है कि इन महाशय की उम्र एक हजार साल हो चुकी है, पर अपने जवां अन्दाज से सभी को ललचाये रहते हैं। माना जाता है कि सर्वप्रथम दसवीं शताब्दी में मध्य एशिया में समोसा एक व्यंजन के रूप में सामने आया था। 13-14वीं शताब्दी में व्यापारियों के माध्यम से समोसा भारत पहुँचा। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने एक जगह जिक्र किया है कि दिल्ली सल्तनत में उस दौरान स्टड मीट वाला घी में डीप फ्राई समोसा शाही परिवार के सदस्यों व अमीरों का प्रिय व्यंजन था। 14वीं शताब्दी में भारत यात्रा पर आये इब्नबतूता ने मो0 बिन तुगलक के दरबार का वृतांत देते हुए लिखा कि दरबार में भोजन के दौरान मसालेदार मीट, मंूगफली और बादाम स्टफ करके तैयार किया गया लजीज समोसा परोसा गया, जिसे लोगों ने बड़े चाव से खाया। यही नहीं 16वीं शताब्दी के मुगलकालीन दस्तावेज आईने अकबरी में भी समोसे का जिक्र बकायदा मिलता है।

समोसे का यह सफर बड़ा निराला रहा है। समोसे की उम्र भले ही बढ़ती गई पर पिछले एक हजार साल में उसकी तिकोनी आकृति में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। आज समोसा भले ही शाकाहारी-मांसाहारी दोनों रूप में उपलब्ध है पर आलू के समोसों का कोई सानी नहीं है और यही सबसे ज्यादा पसंद भी किया जाता है। इसके बाद पनीर एवं मेवे वाले समोसे पसंद किये जाते हैं। अब तो मीठे समोसे भी बाजार में उपलब्ध हैं। समोसे का असली मजा तो उसे डीप फ्राई करने में है, पर पाश्चात्य देशों में जहाँ लोग कम तला-भुना पसंद करते हैं, वहां लोग इसे बेक करके खाना पसंद करते हैं। भारत विभिन्नताओं का देश है, सो हर प्रांत में समोसे के साथ वहाँ की खूबियाँ भी जुड़ती जाती हैं। उ0प्र0 व बिहार में आलू के समोसे खूब चलते हैं तो गोवा में मांसाहारी समोसे ज्यादा लोकप्रिय हैं। पंजाबी समोसा खूब चटपटा होता है तो चाइनीज क्यूजीन पसंद करने वालों के लिए नूडल्स स्टड समोसे भी उपलब्ध हैं। बच्चों और बूढ़ों दोनों में समोसे के प्रति दीवानगी को भुनाने के लिए तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इसे फ्रोजेन फूड के रूप में भी बाजार में प्रस्तुत कर रही हैं।
तो आइये समोसा जी की 1000 वीं वर्षगाँठ मनाई जाय और ढेर सारे समोसे खाये जायें !!

शुक्रवार, 5 जून 2009

आपके पर्यावरण को आपकी जरूरत है

धरती पर पर्यावरण को समृद्ध बनाने, पर्यावरण संरक्षण एवं पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मानवीय रूप प्रदान करने हेतु हर वर्ष 5 जून को ‘‘विश्व पर्यावरण दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है। विभिन्न देशों के बीच पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा देना इसके प्रमुख उद्देश्यों में शामिल है। इस दिवस की शुरूआत संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा के द्वारा वर्ष 1972 में स्टाकहोम में मानव पर्यावरण पर आयोजित कान्फ्रेंस में की गई थी। विश्व भर में इस दिन सतत् विकास की प्रक्रिया में आम लोगों को शामिल करने के मद्देनजर विश्व पर्यावरण दिवस पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य विश्व समुदाय का ध्यान पर्यावरण और उससे जुड़ी राजनीति की ओर आकृष्ट करना होता है। 1972 में ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का भी आरम्भ किया गया। गौरतलब है कि यह पहला ऐसा मौका था, जब विश्व पर्यावरण और उससे जुड़ी राजनीति,आर्थिक और सामाजिक समस्याओं पर इतने बड़े मंच पर चर्चा हुई थी। विश्व पर्यावरण दिवस पर विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से इस बात पर खास जोर दिया जाता है कि पर्यावरण और उससे जुड़े मुद्दों के प्रति आम धारणा बदलने में समुदाय महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा प्रतिवर्ष विभिन्न थीमों पर विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष यह आयोजन मैक्सिको द्वारा किया जा रहा है और थीम है- ‘‘आपके पर्यावरण को आपकी जरूरत है, जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए एक जुट हो।‘‘ निश्चिततः भारत समेत पूरे विश्व को इस दिवस को एक पवित्र अभियान से जोड़ते हुए न सिर्फ वृक्षारोपण की तरफ अग्रसर होना चाहिए बल्कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की दिशा में भी प्रभावी कदम उठाने होंगे। तो आइये हम संकल्प लें कि इस दिन हम एक वृक्ष अवश्य लगायेंगे, न सिर्फ लगायेंगे बल्कि इसके फलने-फूलने की जिम्मेदारियों का भी निर्वाह करेंगे।

गुरुवार, 4 जून 2009

ई-पार्क

बचपन में पढ़ते थे
ई फॉर एलीफैण्ट
अभी भी ई अक्षर देख
भारी-भरकम हाथी का शरीर
सामने घूम जाता है
पर अब तो ई
हर सवाल का जवाब बन गया है
ई-मेल, ई-शॉप, ई-गवर्नेंस
हर जगह ई का कमाल
एक दिन अखबार में पढ़ा
शहर में ई-पार्क की स्थापना
यानी प्रकृति भी ई के दायरे में
पहुँच ही गया एक दिन
ई-पार्क का नजारा लेने
कम्प्यूटर-स्क्रीन पर बैठे सज्जन ने
माउस क्लिक किया और
स्क्रीन पर तरह-तरह के देशी-विदेशी
पेड़-पौधे और फूल लहराने लगे
बैकग्राउण्ड में किसी फिल्म का संगीत
बज रहा था और
नीचे एक कंपनी का विज्ञापन
लहरा रहा था
अमुक कोड नंबर के फूल की खरीद हेतु
अमुक नम्बर डायल करें
वैलेण्टाइन डे के लिए
फूलों की खरीद पर
आकर्षक गिटों का नजारा भी था
पता ही नहीं चला
कब एक घंटा गुजर गया
ई-पार्क का मजा ले
ज्यों ही चलने को हुआ
उन जनाब ने एक कम्प्यूटराइज्ड रसीद
हाथ में थमा दी
आखिर मैंने पूछ ही लिया
भाई! न तो पार्क में मैने
परिवार के सदस्यों के साथ दौड़ लगायी
न ही अपने टॉमी कुत्ते को घुमाया
और न ही मेरी पत्नी ने पूजा की खातिर
कोई फूल या पत्ती तोड़ी
फिर काहे की रसीद ?
वो हँसते हुये बोला
साहब! यही तो ई-पार्क का कमाल है
न दौड़ने का झंझट
न कुत्ता सभालने का झंझट
और न ही पार्क के चौकीदार द्वारा
फूल पत्तियाँ तोड़ते हुए पकड़े जाने पर
सफाई देने का झंझट
यहाँ तो आप अच्छे-अच्छे
मनभावन फूलों व पेड़-पौधें का नजारा लीजिये
और आँखों को ताजगी देते हुये
आराम से घर लौट जाईये !!