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गुरुवार, 25 मार्च 2010

पाखी को जन्म-दिवस की बधाइयाँ !!

ये देखिये हमारी बिटिया अक्षिता (पाखी) को। पूरे अंडमान (Andaman & Nicobar Islands) के रंग में रंग गई हैं। हर रोज समुद्र का किनारा, पार्क, म्यूजियम, चिड़िया टापू, यहाँ का खूबसूरत परिवेश और जमकर मस्ती। इन्हें बस मौका मिलना चाहिए बीच पर जाने का, फिर क्या। इतना दौड़ेन्गी कि हम इनके पीछे ही दौड़ते रह जाएं. यही बच्चों का बाल-सुलभ संसार है. वे किसी सीमा को नहीं जानते और न ही कोई डर. बस अपनी अलबेली दुनिया में मस्त. हमारी जीवन-संगिनी आकांक्षा जी की एक बाल-कविता "लौट आओ बचपन" की पंक्तियाँ गौरतलब हैं-

बचपन मेरा कितना प्यारा
मम्मी-पापा का राजदुलारा
माँ की ममता, पापा का प्यार
याद आता है लाड़-दुलार।

बचपन मेरा लौट जो आए
जीवन में खुशहाली लाए
पढ़ाई से मिलेगी छुट्टी
बात नहीं कोई होगी झूठी।

अब बचपन मेरे लौट भी आओ
हंसो, खेलो और मौज मनाओ !!
जब भी पाखी को देखता हूँ तो अपना बचपन याद आने लगता है. वाकई बचपन के दिनों के क्या कहने. आज पाखी का जन्म-दिवस है, पूरे चार साल की हो गईं. इनका पिछला जन्म-दिवस कभी नहीं भूलूँगा, जब जबरदस्त बीमारी के बाद उसी दिन हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हुआ था. मानो खुशियाँ दुगुनी हो गई थीं. पाखी और उनकी मम्मी आकांक्षा बहुत खुश थीं उस दिन. खैर ये सब समय का चक्र है, जो अपनी चाल चलता रहता है. मुझे याद है जब पाखी का जन्म हुआ था तो मुझे सीनियर टाइम स्केल वेतनमान में प्रोन्नति मिली थी और इस बार पाखी के जन्म-दिन से लगभग कुछ ही दिनों पहले निदेशक के रूप में प्रोन्नति. लोग कहते हैं कन्या लक्ष्मी-स्वरूपा होती हैं, मेरे मामले में यह अक्षरक्ष: सही है।


आज 25 मार्च को पाखी का जन्म-दिवस है। इस दिन का हम बेसब्री से इंतजार करते हैं, और वो खुशनसीब दिन आज है. पाखी को जन्म-दिवस की ढेर सारी बधाई, आशीष और प्यार. वह यूँ ही हँसती-खिलखिलाती रहे और हमारे दामन में खुशियाँ भरती रहे !!

मंगलवार, 23 मार्च 2010

जरा याद करो कुर्बानी

आज 23 मार्च को राजगुरु, सुखदेव और शहीद-ए-आजम भगत सिंह की पुण्य तिथि है।ब्रितानिया हुकूमत ने जब शहीद-ए-आजम भगतसिंह को फाँसी के फँदे पर लटकाया तो पूरे देश में आजादी पाने की ख्वाहिश और भी भड़क गई। 23 मार्च 1931 की इस घटना की गूँज देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुनाई दी। तत्कालीन भारतीय नेताओं और देश विदेश के अखबारों ने गोरी हुकूमत के इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ जबरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त की। गौरतलब है कि गोरी हुकूमत ने जन विद्रोह के डर से लाहौर षड्यंत्र (सैंडर्स हत्याकांड) में राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी के लिए निर्धारित तिथि 24 मार्च से एक दिन पहले यानी 23 मार्च को ही फाँसी पर चढ़ा दिया था। इस पर क्षोभ व्यक्त करते हुए चर्चित 'आनंद बाजार' पत्रिका ने लिखा- 'राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह की मौत से पूरे देश पर दुःख का काला साया छा गया है' तो 'पंजाब केसरी' ने लिखा 'जिस व्यक्ति ने वायसराय को इन नौजवानों को फाँसी पर लटकाने की सलाह दी वह देश का गद्दार और शैतान था।'

स्वयं भगत सिंह और उनके साथी इस क्रांति का अंत जानते थे, पर यह विश्वास अवश्य था कि उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा और देश आजाद होगा। ‘‘तुझे जिबह करने की खुशी और मुझे मरने का शौक है मेरी भी मर्जी वही जो मेरे सैयाद की है...’’ इन पंक्तियों का एक-एक लफ्ज उस महान देशभक्त भगत सिंह की वतन पर मर मिटने की ख्वाहिश जाहिर करता है, जिसने आजादी की राह में हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। आज भी इस शहादत पर लिखे अंग्रेजी अखबार 'द पीपुल' के शब्द गौरतलब हैं-'भगतसिंह एक किंवदंती बन गया है। देश के सबसे अच्छे पुष्प के चले जाने से हर कोई दुःखी है। हालाँकि भगतसिंह अब नहीं रहा लेकिन हर जगह क्रांति अमर रहे और भगतसिंह अमर रहे जैसे नारे अब भी सुनाई देते हैं।'

!!! आज शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की पुण्यतिथि पर कोटिश: नमन और श्रद्धांजलि !!!




शनिवार, 20 मार्च 2010

गौरैया कहाँ से आयेगी

आज दुनिया भर में 20 मार्च 2010 को पहली बार ''विश्व गौरैया दिवस'' मनाया जा मनाया जा रहा है बहुत पहले गौरैया के विलुप्त होने को लेकर एक कविता लिखी थी, आज ''विश्व गौरैया दिवस'' पर प्रस्तुत है-

चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।

वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।

क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।

बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।

प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।
आखिर
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी ?

मंगलवार, 16 मार्च 2010

दोस्ती करें...

आज भारतीय नव-वर्ष, नव-संवत्सर विक्रमी सम्वत 2067 का आरंभ हो रहा है। इस दिन से बहुत सारी घटनाएँ जुडी हुई हैं. इस रूप में आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है. चैत्री नवरात्रारंभ भी आज से ही है. हर तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ. इन खुशियों के बीच, भाग-दौड़ की जिंदगी में कुछ पल अपने लिए भी निकालें औए इस पर विचार करें-



1 दोस्ती करें, फूलों से ताकि जीवन-बगिया महकती रहे।

2 दोस्ती करें, पक्षियों से ताकि जिन्दगी चहकती रहे।

3 दोस्ती करें, रंगों से ताकि दुनिया रंगीन हो जाए।

4 दोस्ती करें, कलम से ताकि सुन्दर वाक्यों का सृजन होता रहे।

5 दोस्ती करें, पुस्तकों से ताकि शब्द-संसार में वृद्धि होती रहे।

6 दोस्ती करें,ईश्वर से ताकि संकट की घड़ी में वह हमारे काम आए।

7 दोस्ती करें, अपने आप से ताकि जीवन में कोई विश्वासघात ना कर सके।

8 दोस्ती करें, अपने माता-पिता से क्योंकि दुनिया में उनसे बढ़कर कोई शुभचिंतक नहीं।


9 दोस्ती करें, अपने गुरु से ताकि उनका मार्गदर्शन आपको भटकने ना दें।

10 दोस्ती करें, अपने हुनर से ताकि आप आत्मनिर्भर बन सकें।


!! भारतीय नववर्ष विक्रमी सम्वत 2067 और चैत्री नवरात्रारंभ पर हार्दिक मंगलकामनाएं !!

रविवार, 14 मार्च 2010

सेलुलर जेल की गाथा

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी सरकार को चैकन्ना कर दिया। व्यापार के बहाने भारत आये अंग्रेजों को भारतीय जनमानस द्वारा यह पहली कड़ी चुनौती थी जिसमें समाज के लगभग सभी वर्ग शामिल थे। जिस अंग्रेजी साम्राज्य के बारे में ब्रिटेन के मजदूर नेता अर्नेस्ट जोंस का दावा था कि-‘‘अंग्रेजी राज्य में सूरज कभी डूबता नहीं और खून कभी सूखता नहीं‘‘, उस दावे पर ग्रहण लगता नजर आया। अंग्रेजों को आभास हो चुका था कि उन्होंने युद्ध अपनी बहादुरी व रणकौशलता की वजह से नहीं बल्कि षडयंत्रों, जासूसों, गद्दारी और कुछेक भारतीय राजाओं के सहयोग से जीता था। अपनी इन कमजोरियों को छुपाने के लिए जहाँ अंग्रेजी इतिहासकारों ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सैनिक गदर मात्र कहकर इसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की, वहीं इस संग्राम को कुचलने के लिए भारतीयों को असहनीय व अस्मरणीय यातनायें दी गई। एक तरफ लोगों को फांसी दी गयी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया गया व तोपों से बांधकर दागा गया वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी सरकार को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें ऐसी जगह भेजा गया, जहाँ से जीवित वापस आने की बात तो दूर किसी अपने-पराये की खबर तक मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं रख सकते थे और और यही काला पानी था। वो काला पानी जिसे आज सिर्फ महसूस किया जा सकता है कि दमन व यातना की प्रताड़ित परिस्थितियों के बीच किस प्रकार देश के तमाम नौजवानों ने अपनी जिन्दगी आजादी की आग में झांेक दी। अंग्रेजी हुकूमत ने काला पानी द्वारा इस आग को बुझाने की जबरदस्त कोशिश की पर वह तो चिंगारी से ज्वाला बनकर भड़क उठी। सेलुलर जेल, अण्डमान में कैद क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों ने जमकर जुल्म ढाये पर जुल्म से निकली हर चीख ने भारत माँ की आजादी के इरादों को और बुलंद किया।

सेलुलर जेल के चलते ही अंडमान महत्वूपर्ण पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि अंडमान व सेलुलर जेल एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। यह एक अजीब इत्तफाक है कि अंडमान को भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई हेतु सबसे पहले चुना था पर बाद में इसे बदलकर रामेश्वरम (धनुषकोडि) कर दिया। उसके बाद से सभ्यता की हलचल अंडमान में नहीं दिखी। प्रकृति के आगोश में लिपटे इस खूबसूरत द्वीप के चारों तरफ विस्तृत समुद्री लहरों की अठखेलियाँ दीर्घ-काल तक लोगों की निगाहों से बची रहीं पर उनके इस अनछुएपन को न जाने किसकी नजर लग गयी कि ‘काला पानी‘ के रुप में कुख्यात हुई।

10 मार्च 2006 को अपना शताब्दी उत्सव मना चुका सेल्यूलर जेल आज आजादी के गवाह रूप में खड़ा है। अंग्रेजी सरकार को लगा था कि सुदूर निर्वासन व यातनाओं के बाद स्वाधीनता सेनानी स्वतः निष्क्रिय व खत्म हो जायेंगे पर यह निर्वासन व यातना भी सेनानियों की गतिविधियों को नहीं रोक पाया। वे तो पहले से ही जान हथेली पर लेकर निकले थे, फिर भय किस बात का। क्रान्तिकारियों का मनोबल तोड़ने और उनके उत्पीड़न हेतु सेल्यूलर जेल में तमाम रास्ते अख्तियार किये गये। स्वाधीनता सेनानियों और क्रातिकारियों को राजनैतिक बंदी मानने की बजाय उन्हें एक सामान्य कैदी माना गया। यही कारण था कि उन्हें लोहे के कोल्हू चलाने हेतु बैल की जगह जोता गया और प्रतिदिन 15 सेर तेल निकालने की सजा दी गयी। वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में कालापानी के दिनों का वर्णन किया है, जिसे पढ़कर अहसास होता है कि आजादी के दीवाने गुलामी के दंश को खत्म करने हेतु किस हद तक यातनायें और कष्ट झेलते रहे। सेलुलर जेल की खिड़कियों से अभी भी जुल्म की दास्तां झलकती है। ऐसा लगता है मानो अभी फफक कर इसकी दीवालें रो पड़ेंगी।

सेल्यूलर जेल आजादी का एक ऐसा पवित्र तीर्थस्थल बन चुका है, जिसके बिना आजादी की हर इबारत अधूरी है। पर इस इतिहास को वर्तमान से जोड़ने की जरूरत है। सेलुलर जेल अपने अंदर जुल्मों की निशानी के साथ-साथ वीरता, अदम्य साहस, प्रतिरोध, बलिदान व त्याग की जिस गाथा को समेटे हुए है, उसे आज की युवा पीढ़ी के अंदर भी संचारित करने की आवश्यकता है। वाकई आज देश के हरेक व्यक्ति विशेषकर बच्चों को सेल्युलर जेल के दर्शन करने चाहिए ताकि आजादी की कीमत का अहसास उन्हें भी हो सके। देशभक्ति के जज्बे से भरे देशभक्तों ने सेल्युलर जेल की दीवारों पर अपने शब्द चित्र भी अंकित किये हैं। दूर-दूर से लोग इस पावन स्थल पर आजादी के दीवानों का स्मरण कर अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं व इतिहास के गर्त में झांककर उन पलों को महसूस करते हैं जिनकी बदौलत आज हम आजादी के माहौल में सांस ले रहे हैं। बदलते वक्त के साथ सेल्युलर जेल इतिहास की चीज भले ही बन गया हो पर क्रान्तिकारियों के संघर्ष, बलिदान एवं यातनाओं का साक्षी यह स्थल हमेशा याद दिलाता रहेगा कि स्वतंत्रता यूँ ही नहीं मिली है, बल्कि इसके पीछे क्रान्तिकारियों के संघर्ष, त्याग व बलिदान की गाथा है।
(आकाशवाणी पोर्टब्लेयर से 14 मार्च को प्रसारित)

मंगलवार, 9 मार्च 2010

सूचना के अधिकार के अधीन अफसरों की शिक्षा का ब्यौरा

सूचना का अधिकार दिनों-ब-दिन व्यापक होता जा रहा है। एक तरफ जहाँ लोग इसके माध्यम से शिक्षित हो रहे हैं, वहीँ यह समाज को जागरूक भी कर रहा है। हाल ही में मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने आरटीआई के तहत दायर एक आवेदन पर यह फैसला दिया कि कोई सरकारी कर्मचारी या अधिकारी कितना पढ़ा-लिखा है, इसका ब्यौरा सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत हासिल किया जा सकता है। यह मामला लोकसभा सचिवालय से जुड़ा था, जिसके एक अधिकारी संयुक्त निदेशक [सुरक्षा] आरडी शर्मा के शैक्षिक रिकार्ड के अलावा अन्य निजी जानकारियों की फोटोकापी जगदीश प्रसाद गौड़ ने मांगी थी। सचिवालय ने जानकारी देने से इन्कार कर दिया था, जिस पर श्री गौड़ ने सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाया।


सचिवालय ने आरटीआई अधिनियम की उन धाराओं का हवाला दिया, जिनके तहत निजी और सार्वजनिक हित से नहीं जुड़ी जानकारी देने की मनाही है। मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने कहा कि सूचना आधिकारिक रिकार्ड होता है। संबंधित व्यक्ति की मौखिक या लिखित सहमति लेकर उससे जुड़ी निजी सूचनाएं उजागर की जा सकती हैं।


वाकई सूचना के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत यह एक बेजोड़ फैसला है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए !!


सोमवार, 8 मार्च 2010

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 वर्ष

आज अंतरराष्ट्रीय नारी दिवस है। यह महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी उतना ही महत्त्व रखता है, अखिकरकर नारी न हो तो सृजन संभव भी नहीं. कहते हैं हर पुरुष की सफलता के पीछे नारी का हाथ होता है, उसका रूप चाहे जो भी हो. आज का दिन इसलिए भी खास है कि अंतरराष्ट्रीय नारी दिवस के 100 साल पूरे हो गए. आज के दिन को हर कोई संजोना चाहता है. भारत सरकार आज के दिन महिला-आरक्षण बिल को सदन के पटल पर पेश कर रही है, शायद यह सोचकर कि आज के दिन कोई विरोध न करे. खैर देखिये क्या होता है. महिला-दिवस पर अपनी जीवन साथी आकांक्षा जी के ब्लॉग शब्द-शिखर पर भी वैचारिक सामग्री पढ़ रहा था, बड़ा दिलचस्प लगा. वैसे भी इस समय मैं घर से दूर एक वर्कशॉप के लिए भारतीय प्रबंध संस्थान, शिलांग (मेघालय) में हूँ. सो आज के दिन आकांक्षा जी की इक पोस्ट साभार !!


महिला-दिवस सुनकर बड़ा अजीब लगता है। क्या हर दिन सिर्फ पुरुषों का है, महिलाओं का नहीं ? पर हर दिन कुछ कहता है, सो इस महिला दिवस के मानाने की भी अपनी कहानी है। कभी महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई से आरंभ हुआ यह दिवस बहुत दूर तक चला आया है, पर इक सवाल सदैव उठता है कि क्या महिलाएं आज हर क्षेत्र में बखूबी निर्णय ले रही हैं। मात्र कुर्सियों पर नारी को बिठाने से काम नहीं चलने वाला, उन्हें शक्ति व अधिकार चाहिए ताकि वे स्व-विवेक से निर्णय ले सकें. आज नारी राजनीति, प्रशासन, समाज, संगीत, खेल-कूद, फिल्म, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, अन्तरिक्ष सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठ प्रदर्शन कर रही है, यहाँ तक कि आज महिला आर्मी, एयर फोर्स, पुलिस, आईटी, इंजीनियरिंग, चिकित्सा जैसे क्षेत्र में नित नई नजीर स्थापित कर रही हैं। यही नहीं शमशान में जाकर आग देने से लेकर पुरोहिती जैसे क्षेत्रों में भी महिलाएं आगे आ रही हैं. रुढियों को धता बताकर महिलाएं हर क्षेत्र में परचम फैलाना चाहती हैं।

पर इन सबके बावजूद आज भी समाज में बेटी के पैदा होने पर नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है, कुछ ही माता-पिता अब बेटे-बेटियों में कोई फर्क नहीं समझते हैं...आखिर क्यों ? क्या सिर्फ उसे यह अहसास करने के लिए कि वह नारी है. वही नारी जिसे अबला से लेकर ताड़ना का अधिकारी तक बताया गया है. सीता के सतीत्व को चुनौती दी गई, द्रौपदी की इज्जत को सरेआम तार-तार किया गया तो आधुनिक समाज में ऐसी घटनाएँ रोज घटित होती हैं. तो क्या बेटी के रूप में जन्म लेना ही अपराध है. मुझे लगता है कि जब तक समाज इस दोगले चरित्र से ऊपर नहीं उठेगा, तब तक नारी की स्वतंत्रता अधूरी है. सही मायने में महिला दिवस की सार्थकता तभी पूरी होगी जब महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, वैचारिक रूप से संपूर्ण आज़ादी मिलेगी, जहाँ उन्हें कोई प्रताड़ित नहीं करेगा, जहाँ कन्या भ्रूण हत्या नहीं की जाएगी, जहाँ बलात्कार नहीं किया जाएगा, जहाँ दहेज के लोभ में नारी को सरेआम जिन्दा नहीं जलाया जाएगा, जहाँ उसे बेचा नहीं जाएगा। समाज के हर महत्वपूर्ण फैसलों में उनके नज़रिए को समझा जाएगा और क्रियान्वित भी किया जायेगा. समय गवाह है कि एक महिला के लोकसभा स्पीकर बनाने पर ही लोकसभा भवन में महिलाओं के लिए पृथक प्रसाधन कक्ष बन पाया. इससे बड़ा उदारहण क्या हो सकता है. जरुरत समाज में वह जज्बा पैदा करने का है जहाँ सिर उठा कर हर महिला अपने महिला होने पर गर्व करे, न कि पश्चाताप कि काश मैं लड़का के रूप में पैदा होती.



!!! अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के 100 वर्ष पूरे होने पर शुभकामनायें !!!

सोमवार, 1 मार्च 2010

होली : रंगों के साथ राग-द्वेष भी धोने का त्यौहार

पग-पग पर बदले बोली, पग-पग पर बदले भेष, वाले भारतवर्ष में होली का त्यौहार धूम-धाम से विभिन्न रंगों में मनाया जाता है। भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े मॉल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल ऑफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। होली पर्व के पीछे तमाम धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं छुपी हुइ हैं पर अंतत: इस पर्व का उद्देश्य मानव-कल्याण ही है। लोकसंगीत, नृत्य, नाट्य, लोककथाओं, किस्से-कहानियों और यहाँ तक कि मुहावरों में भी होली के पीछे छिपे संस्कारों, मान्यताओं व दिलचस्प पहलुओं की झलक मिलती है।

नए वस्त्र नया श्रृंगार और लजीज पकवानों के बीच होली पर्व मनाने का एक मनोवैज्ञानिक कारण भी गिनाया जाता है कि यह पर्व के बहाने समाज एवं व्यक्तियों के अन्दर से कुप्रवृत्तियों एवं गन्दगी को बाहर निकालने का माध्यम है। होली पर खेले गए रंग गन्दगी के नहीं बल्कि इस विचार के प्रतीक हैं कि इन रंगों के धुलने के साथ-साथ व्यक्ति अपने राग-द्वेष भी धो दे। यही कारण है कि रंगों को धुलने के बाद लोग मस्ती में फगुआ गाते हैं और एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाकर भाइचारे का प्रदर्षन करते हैं। वर्तमान परिवेश में जरुरत है कि इस पवित्र त्यौहार पर आडम्बर की बजाय इसके पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।
!! होली-पर्व पर शुभकामनायें !!